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उनके आलोक-वलय में जग मैंने देखा —
 
जन-जन के संघर्षों में विकसित
:परिणत होते नूतन मन का ।
::वह अन्तस्तल . . . . . .
संघर्ष-विवेकों की प्रतिभा
 
अनुभव-गरिमाओं की आभा
 
वह क्षमा-दया-करुणा की नीरोज्ज्वल शोभा
 
सौ सहानुभूतियों की गरमी,
 
प्राणों में कोई बैठा है कबीर मर्मी
 
ये पहलू-पांखें, पंखुरियाँ स्वर्णोज्जवल
 
नूतन नैतिकता का सहस्र-दल खिलता है,
 
मानव-व्यक्तित्व-सरोवर में !!
 
उस स्वर्ण-सरोवर का जल
:चमक रहा देखो
:मैंने तुममें, जन-जन में जिस दिन पहचाना
उस दिन, उस क्षण
 
नीले नभ का सूरज हँसते-हँसते उतरा
:मेरे आंगन,
::था प्रस्तुत यों
मेरे सम्मुख आया मानो
 
मेरा ही मन ।
 
वे कहने लगे कि चले आ रहे तारागण
 
इस बैठक में, इस कमरे में, इस आंगन में —
 
जब कह ही रहा था कि कब इन्हें बुलाया है मैंने,
 
तब अकस्मात् आये मेरे जन, मित्र, स्नेह के सम्बन्धन
 
नक्षत्र-मंडलों में से तारागण उतरे
 
मैदान, धूप, झरने, नदियाँ सम्मुख आयीं,
 
मानो जन-जन के जीवन-गुण के रंगों में
 
है फैल चली मेरी दुनिया की
:या कि तुम्हारी ही झाँईं ।
::अभिमान हुआ
सन्दर्भ हटा, व्यक्ति का कहीं उल्लेख न कर,
 
जब भव्य तुम्हारा संवेदन
 
सबके सम्मुख रख सका, तभी
 
अनुभवी ज्ञान-संवेदन की दुर्दम पीड़ा
::झलमला उठी !!
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