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Kavita Kosh से
|रचनाकार=हरकीरत हकीर
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<Poem>
हंसी की इक
जालों को उतारने की
नाकाम कोशिश में
बादबन* <ref>हवाओं के बन्धन</ref>खोलती
पर हवायें
और मुखालिफ़* <ref>विरोधी</ref> हो जातीं
इर्द-गिर्द के घेरे
और कस जाते...
न वह अतीत है
न वर्तमान...
मुझे इस पानी में उतरना है
मेरे लिए हवाओं का साथ
हुँह...!
तुम्हारी यही तो त्रासदी है
गिरने का रोना...
खोने का रोना...
बुन रही थी....!!
</poem>