भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
कज्जल-सा कालापन लेकर,
तू नवल सृष्टि सृष्टि की ऊषा की
नव द्युति अपने अंगों में भर,
दृग-कोयों का रच बंदीघर,
कौंधती तड़ित तड़ित को जिह्वा-सी
विष-मधुमय दाँतों में दाबे,