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बिकने को हम भी आये थे क़ीमत नहीं मिली
हंगाम-ए-रोज़-ओ- शब के मशागिल मशागिल थे और भी कुछ कारोबार-ए-ज़ीस्त से फ़ुर्सत फ़ुर्सत नहीं मिली
कुछ दूर हम भी साथ चले थे कि यूँ हुआ
कुछ मसअलों पे उनसे तबीयत तबीयत नहीं मिली
इक आँआँच थी कि जिससे सुलगता रहा वजूद
शोला सा जाग उट्ठे वो शिद्दत नहीं मिली
वो बेहिसी थी ख़ुश्क ख़ुश्क हुआ सब्ज़ा-ए-उम्मीद
बरसे जो सुबह-ओ- शाम वो चाहत नहीं मिली