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|संग्रह=कितनी नावों में कितनी बार / अज्ञेय
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और हमेशा विदाई के पहले का <br> वह और भी डरावना क्षण <br> जिस में सारे अपनापे <br> सुन्न हो जाते हैं <br> एक परायेपन की <br> चट्टान के नीचे: <br> प्यार की मींड़दार पुकारें <br> सम उक्तियों में गूंज जानेवाली <br> गुंथी उंगलियों, विषम, घनी साँसों की यादें, <br> कनखियाँ, सहलाहटें, <br> कनबतियाँ, <br> अस्पर्श चुम्बन, <br> अनकही आपस में जानी प्रतीक्षाएँ, <br> खुली आँखों की वापियों में और गहरे <br> :सहसा खुल जाने वाले <br> पिघली चिनगारी को ओट रखते द्वार— <br> खिलने-सिमटने की चढ़ती-उतरती लहरें, <br> कँपकपियाँ, हल्के दुलार... <br> काल की गाँस कर देती है <br> अपने को अपना ही अजनबी— <br> हमेशा, हमेशा, हमेशा... <br/poem>