भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
मेरा बचपन था मेरा घर था खिलौने थे मेरे
सर पे माँ-बाप का साया भी ग़ज़ल जैसा था
**
हो चाहे जिस इलाक़े की ज़बाँ बच्चे समझते हैं
सगी है या सौतेली है ये माँ बच्चे समझते हैं
**
ये बच्ची चाहती और कुछ दिन माँ को ख़ुश रखना
ये कपड़ों के मदद से अपनी लम्बाई छ्पाती है
**
ये सोच के माँ -बाप की ख़िदमत<ref>सेवा</ref>में लगा हूँ
इस पेड़ का साया मेरे बच्चों को मिलेगा
**
हँसते हुए माँ-बाप की गाली नहीं खाते
बच्चे भी ग़रीबी को समझने लगे शायद
अब जाग भी जाते हैं तो सहरी <ref>वह भोजन जो रोज़ा करने से पहले सेपहले बहुत तड़के किया जाता है</ref>नहीं खाते **
</poem>
{{KKMeaning}}