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{{KKRachna
|रचनाकार=त्रिलोचन
}}<poem>सुग्गों की पाँत
कौन गिनती करे इनकी
फिर भी हजार से कम तो नहीं होंगे।
किसान लाठी भाँजता हुआ
अपने खेत के चक्कर लगाता है
अगर वह एसा न करे
धान की एक भी बाली घर न पहुँचे।
इति भीति सभी से बचाना है
खेती को, तभी घर और घर वाले
सुख पाएँगे, खाएँगे, खेलेंगे।
बंदर, नील गाय आदि खेती पर
झुंड़ के झुंड टूट पडेंगे
फिर तो कुछ भी नहीं बचेगा।
किसान की किसानी
दिन रात में भेद नहीं करती
तभी लोग जीते हैं।</poem>
{{KKRachna
|रचनाकार=त्रिलोचन
}}<poem>सुग्गों की पाँत
कौन गिनती करे इनकी
फिर भी हजार से कम तो नहीं होंगे।
किसान लाठी भाँजता हुआ
अपने खेत के चक्कर लगाता है
अगर वह एसा न करे
धान की एक भी बाली घर न पहुँचे।
इति भीति सभी से बचाना है
खेती को, तभी घर और घर वाले
सुख पाएँगे, खाएँगे, खेलेंगे।
बंदर, नील गाय आदि खेती पर
झुंड़ के झुंड टूट पडेंगे
फिर तो कुछ भी नहीं बचेगा।
किसान की किसानी
दिन रात में भेद नहीं करती
तभी लोग जीते हैं।</poem>