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कैसे मुमकिन है, ख़मोशी से फ़ना<ref>तबाह</ref> हो जाऊँ
कोई पत्थर तो नहीं हूँ, कि ख़ुदा हो जाऊँ
फ़ैसले सारे उसी के हैं, मिरे बाबत भी
मैं मुहब्बत हूँ, मुहब्बत तो नहीं मिटती है
एक ख़ुश्बू हूँ , जो बिखरूँ तो सबा<ref>ठंडी हवा</ref> हो जाऊँ
गर इजाज़त दे ज़माना, तो मैं जी लूँ इक ख़्वाब
बेड़ियाँ तोड़ के आवारा हवा हो जाऊँ
रात भर पहलूनशीं हों वो , कभी “श्रद्धा” के
रात कट जाए तो, क्या जानिये क्या हो जाऊँ
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