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|रचनाकार=जगन्नाथदास 'रत्नाकर'
}}
[[Category:पद]]
<poem>
रंग-रूप रहित लखात सबही हैं हमै,
::वैसो एक और ध्याइ धीर धरिहैं कहा ।
कहै रतनाकर जरी हैं बिरहानल मैं,
::और अब जोति कौं जगाइ जरिहैं कहा ॥
राखौ धरि ऊधौ उतै अलख अरूप ब्रह्म,
::तासौं काज कठिन हमारे सरिहैं कहा ।
एक ही अनंग साधि साधन सब पूरीं अब,
::और अंग-रहित अराधि करिहैं कहा ॥45॥
</poem>
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