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{{KKRachna
|रचनाकार=ललित मोहन त्रिवेदी
|संग्रह=
}}
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<poem>
घातों में कुछ नहीं मगर हाँ बातों में कुछ तो दम है !
अंधों को भी बेच दिया है मैंने सुरमा क्या कम है !!
तुम्हें भले संसार दिखाई पड़ता हो केवल सपना !
लेकिन मुझको तो लगता है जुल्फों में अब भी ख़म है !!
यूँ ही नहीं गँवाई हमने जान बेवजह पंडित जी !
खंज़र उसके हाथ सही पर आँख अभी उसकी नम है !!
जबसे कारा की खिड़की पर तूने ज़ुल्फ़ बिखेरी है !
तबसे सजा सुनाने वालों के चेहरों पर मातम है !!
अब तो इन जंजीरों को ही हमने पायल मान लिया !
लोहू तो रिसता रहता है , लेकिन पाँव छमाछम है !!
<poem>
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घातों में कुछ नहीं मगर हाँ बातों में कुछ तो दम है !
अंधों को भी बेच दिया है मैंने सुरमा क्या कम है !!
तुम्हें भले संसार दिखाई पड़ता हो केवल सपना !
लेकिन मुझको तो लगता है जुल्फों में अब भी ख़म है !!
यूँ ही नहीं गँवाई हमने जान बेवजह पंडित जी !
खंज़र उसके हाथ सही पर आँख अभी उसकी नम है !!
जबसे कारा की खिड़की पर तूने ज़ुल्फ़ बिखेरी है !
तबसे सजा सुनाने वालों के चेहरों पर मातम है !!
अब तो इन जंजीरों को ही हमने पायल मान लिया !
लोहू तो रिसता रहता है , लेकिन पाँव छमाछम है !!
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