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Kavita Kosh से
इस तरह से है यहाँ विख्यात
और मेरे बाप को भी लड़कपन में
बताया गया था, बाबा लड़कपन में बड़ों से सुन चुके थे, और अपने पुत्र को मैंने बताया है कि तुलसीदास आए थे यहाँ पर, तीर्थ-यात्रा के लिए निकले हुए थे, पाँव नंगे, वृद्ध थे वे किंतु पैदल जा रहे थे, हो गई थी रात, ठहरे थे कुएँ परी, एक साधू की यहाँ पर झोंपड़ी थी, फलाहारी थे, धरा पर लेटते थे, और बस्ती में कभी जाते नहीं थे, रात से ज्यादा कहीं रुकते नहीं थे, उस समय वे राम का वनवास लिखने में लगे थे। रात बीते उठे ब्राह्म मुहूर्त में, नित्यक्रिया की, चीर दाँतन जीभ छीली, और उसके टूक दो खोंसे धरणि में; और कुछ दिन बाद उनसे नीम के दो पेड़ निकले, साथ-साथ बड़े हुए, नभ से उठे औ' उस समय से आज के दिन तक खड़े हैं।" मैं लड़कपन में पिता के साथ उस थल पर गया था। यह कथन सुनकर पिता ने उस जगह को सिर नवाया और कुछ संदेह से कुछ, व्यंग्य से मैं मुसकराया। शेष भाग जल्द ही पूरी कविता टंकित कर दी जाएगी।