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वरना इतने तो मरासिम थे कि आते-जाते
शिकवा-ए-जुल्मतजुल्मते-ए-शब् शब से तो कहीं बेहतर थाअपने हिस्से की कोई शम्मा शमअ जलाते जाते
कितना आसाँ था तेरे हिज्र में मरना जाना
फिर भी इक उम्र लगी जान से जाते-जाते
जश्न-ए-मकतल मक़्तल ही न बरपा हुआ वरना हम भी
पा बजोलां ही सहीं नाचते-गाते जाते