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{{KKRachna
|रचनाकार=गोबिन्द प्रसाद
|संग्रह=मैं नहीं था लिखते समय / गोबिन्द प्रसाद
}}
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<poem>
ढ़िबरी की लौ में
देखा था उसे पहली बार
मन में कविता की साध जागी
’लड़की में कविता कहाँ है’
कवि को जब तक यह समझ में आया
झर चुके थे सारे बिम्ब
हार चुके थे सारे शब्द
बिखर चुके थे सारे सपने
टूट चुके थे सारे छन्द
सूख चला था लय का सागर
ढ़िबरी की लौ में
कविता का वृक्ष ठूँठ सा खड़ा था अब!
<poem>
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|संग्रह=मैं नहीं था लिखते समय / गोबिन्द प्रसाद
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ढ़िबरी की लौ में
देखा था उसे पहली बार
मन में कविता की साध जागी
’लड़की में कविता कहाँ है’
कवि को जब तक यह समझ में आया
झर चुके थे सारे बिम्ब
हार चुके थे सारे शब्द
बिखर चुके थे सारे सपने
टूट चुके थे सारे छन्द
सूख चला था लय का सागर
ढ़िबरी की लौ में
कविता का वृक्ष ठूँठ सा खड़ा था अब!
<poem>