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रचनाकार=राम प्रकाश 'बेखुद'
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तन्हाई में कलम उठा कर हम वो ही सब गुनते हैं
आँखें जो कुछ देखती हैं और कान जो दिन भर सुनते हैं

कोहरे में जो ठिठुरते हैं और धूप में जलते भूनते हैं
ऐसे भी हैं लोग ज़िंदगी जो कूड़े में चुनते हैं

चाट रही है भूक की दीमक कहीं कहीं पर जिस्मों को
कहीं पड़े गोदाम में लाखों बोरे गेहू घुनते हैं

आने वाले हर लम्हे के परदे में है मौत छुपी
फिर भी कुछ नादाँ हैं सपने जो सदियों के बुनते हैं

इश्क हुआ तब जाके 'बेखुद' हम पे कहीं ये राज़ खुला
गूंगे कैसे बोलते हैं और बहरे कैसे सुनते हैं </poem>