भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

शकुन्तला / अध्याय 9 / भाग 1 / दामोदर लालदास

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कण्वक पुण्य तपोवन की एकान्त शान्त मनहारी।
जकर सहज सौन्दर्य सकल विधि मनस्ताप-सँहारी।।
निकटहिं जतय बहय निर्मल जल-भरल मालिनी धारा।
लता-कुंजसँ कुसुम-पुंजसँ अनुपम शोभागारा।।

कुहुकि रहल अछि कतहु कोकिला चहकय कतहु विहंगे।
जे सुनि बढ़य ककर उरमे नहि नव आमोद उमंगे।।
विपिन-जन्तुगण मुदित करै अछि जयत परस्पर क्रीड़ा।
हा! शकुन्तले ततहि एक छथि प्रिय-विरहार्त अधीरा।।

युगल कपोल-पाश्र्व पर लटकल-फुजि अलकावलि श्यामा।
जनु वदनारविन्द पर श्रेणीबद्ध भ्रमर छविधामा।।
अथवा अमिय-लोभसँ अनुपम मुख-मयंक-मधु-शाला।
घेरि रहल जनु अति लालायित भेलि भुजंगम माला।।

दीना अथच महोदासीना यद्यपि भूषण-हीना।
किन्तु तथापि कान्तिसँ भासित हो छवि अनुप नवीना।।
छल चांचल्य-विहीन फुजल युग लोचन कंज ललामा।
महा उदास ज्ञान-हीना-सनि छलि सुवियोगिनि वामा।।

यदपि समक्षहिं विविध दृश्य छल दर्शनीय मनहारी।
बल्ली, विटप, कुसुम, अलि, कोकिल हृदयाकर्षणकारी।।
किन्तु देखि नहि सकथि क्षणहुँ किछु सहितहुँ अति बेचैनी।
छलि प्रियतमक ध्यान-तल्लीना से मृगशावक-नैनी।।

अस्तु, एक दिन रहथि एतादृश बैसलि विरहिणि बाला।
भेलि, अधोमुखि जपति निरन्तर पति-गुणग्रामक माला।।
धय कपोल-मण्डल कर-तल पर अति विरहाकुल दीना।
जनु वनदेकि वसन्त-विरहमे बैसलि सुधि-बुधि-हीना।।

तेजोवन्त अनन्त तपोधन क्रोधी विदित अपारे।
अयला अकस्मात दुर्वासा मुनिवर ज्ञानागारे।।
दीर्घश्मश्रु जटायुत तनिकर सकल धवल छल केशे।
मुखमण्डलसँ मारतण्ड सम तेज प्रदीप्त निशेषे।।

तन प्रलम्ब, क्रोधें गरदनि अति बकिंम, मुष्टिक बामा।
तमतमैल लटकल दक्षिण भुज तनल उठल रिसधामा।।
ऋषि-परिधान अरुण गैरिक पट, कण्ठ प्रलम्बिल माला।
बंकिम भृकुटि, नयन युग अरुणिम, भयप्रद छवि विकराला।।

सद्यः अपर शमन सन क्रोधित सजल कमण्डल घयने।
तहिसँ भिजल दर्भ अति पावन कर धय तम-तम कयने।।
किन्तु देखि नहि सकलि आगमन मुनिवर्यक से वामा
तें नहि कयल प्रणाम दौडि़ सत्कार आदि अभिरामा।।

कियत दिवस उपरान्त शान्त सुविशुद्ध विचारी।
अयला मुनिवर कण्व तपोवनमे मनहारी।।
गगन-गिरा सुनि बढ़ल हृदय आनन्द अनन्तहि।
ग्रहण पाणि कन्याक कयल नृपवर दुष्यन्तहि।।