भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सरे शहर में एक भी तो घर बचा नहीं / कुमार अनिल
Kavita Kosh से
सारे शहर में एक भी तो घर बचा नहीं
कल रात कोई हादसा जिसमे हुआ नहीं
चौरास्ते पे क़त्ल को मुद्दत गुजर गई
क्या बात है कि शोर भी अब तक मचा नहीं
कैसा ज़हर घुला था न जाने हवाओं में
कल रात जो भी सोया, अभी तक जगा नहीं
दहशत तमाम शहर में छाई है इस कदर
खिड़की भी कोई खोल के अब देखता नहीं
बेकार झूठी आस में फिरते हो दर बदर
कोई किसी का रास्ता अब देखता नहीं
सदियों से इंतजार था जिस शख्स का हमें
आया तो था करीब वह लेकिन रुका नहीं
माना 'अनिल' खरीद तू पाया न कुछ यहाँ
लेकिन यही क्या कम है अभी तक बिका नहीं