भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

खेलि खेल सुखेलनिहारे / तुलसीदास

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

राग टोड़ी

खेलि खेल सुखेलनिहारे |
उतरि उतरि, चुचुकारि तुरङ्गनि, सादर जाइ जोहारे ||
बन्धु-सखा-सेवक सराहि, सनमानि सनेह सँभारे |
दिये बसन-गज-बाजि साजि सुभ साज सुभाँति सँवारे ||
मुदित नयन-फल पाइ, गाइ गुन सुर सानन्द सिधारे |
सहित समाज राजमन्दिर कहँ राम राउ पगु धारे ||
भूप-भवन घर-घर घमण्ड कल्यान कोलाहल भारे |
निरखि हरषि आरती-निछावरि करत सरीर बिसारे ||
नित नए मङ्गल-मोद अवध सब, सब बिधि लोग सुखारे |
तुलसी तिन्ह सम तेउ जिन्हके प्रभुतें प्रभु-चरित पियारे ||