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कैकेयी जौलों जियति रही |
तौलों बात मातुसों मुँह भरि भरत न भूलि कही ||
मानी राम अधिक जननीतें, जननिहु गँस न गही |
सीय-लषन रिपुदवन राम-रुख लखि सबकी निबही ||
लोक-बेद-मरजाद दोष-गुन-गति चित चख न चही |
तुलसी भरत समुझि सुनि राखी राम-सनेह सही ||