भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

गीतावली सुन्दरकाण्ड पद 1 से 10 तक/पृष्ठ 4

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


(4)

सदल सलषन हैं कुसल कृपालु कोसल राउ!
सील-सदन सनेह-सागर सहज सरल सुभाउ ||

नीन्द-भूख न देवरहि, परिहरेको पछिताउ |
धीरधुर रघुबीरको नहि सपनेहू चित चाउ ||

सोधु बिनु, अनुरोध रितुके, बोध बिहित उपाउ |
करत हैं सोइ समय साधन, फलति बनत बनाउ ||

पठए कपि दिसि दसहु, जे प्रभुकाज कुटिल न काउ |
बोलि लियो हनुमान करि सनमान, जानि समाउ ||

दई हौं सङ्केत कहि, कुसलात सियहि सुनाउ |
देखि दुर्ग, बिसेषि जानकि, जानि रिपु-गति आउ ||

कियो सीय-प्रबोध मुँदरी, दियो कपिहि लखाउ |
पाइ अवसर, नाइ सिर तुलसीस-गुनगन गाउ ||