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गुंजरन लागीं भौंर-भीरैं केलि-कुंजन मैं / शृंगार-लतिका / द्विज
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मनहरन घनाक्षरी
(वसंत से प्रकृति में परिवर्तन का अर्द्धजाग्रत अवस्था में वर्णन)
गुंजरन लागीं भौंर-भीरैं केलि-कुंजन मैं, क्वैलिया के मुख तैं कुहूँकनि कढ़ै लगी ।
’द्विजदेव’ तैसैं कछु गहब गुलाबन तैं, चहकि चहूँघाँ चटकाहट बढ़ै लगी ॥
लाग्यौ सरसावन मनोज निज ओज रति, बिरही सतावन की बतियाँ गढ़ै लगी ।
हौंन लागी प्रीति-रीति बहुरि नई सी नव-नेह उनई सी मति मोह सौं मढ़ै लगी ॥२॥