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पद 151 से 160 तक / तुलसीदास / पृष्ठ 2

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पद संख्या 153 तथा 154

(153)
 
मेरे रावरियै गति है रघुपति बलि जाउँ।
निलज नीच निरधन निरगुन कहँ, जग दूसरो न ठाकुर ठाउँ।1।

हैं घर-घर बहु भरे सुसाहिब, सूझत सबनि आपनो दाउँ।
बानर-बंधु बिभीषन-हितु बिनु, कोसलपाल कहूँ न समाउँ।2।

प्रनतारति -भंजन जन -रंजन, सरनागत पबि -पंजर नाउँ।
कीजै दास दासतुलसी अब, कृपासिंधु बिनु मोल बिकाउँ।3।

(154)

देव! छूसरो कौन दीनको दयालु।
सीलनिधान सुजान-सिरोमनि, सरनागत-प्रिय प्रनत-पालु।1।

को समरथ सरबग्य सकल प्रभु, सिव-सनेह-मानस मरालु।
को साहिब किये प्रीतिबस खग निसिचर कपि भील भालु।2।

नाथ हाथ माया-प्रपंच सब, जीव-दोष गुन-करम-कालु।
तुलसिदास भलो पोच रावरो, नेकु निरखि कीजिये निहालु।3।