पद 151 से 160 तक / तुलसीदास / पृष्ठ 4
पद संख्या 157 तथा 158
(157)
सेइये सुसाहिब रा सो।
सुखद सुसील सुजान सूर सुचि , सुंदर कोटिक काम सो।1।
सारद सेस साधु महिमा कहैं, गनगन-गायक साम सो।
सुमिरि सप्रेम नाम जासों रति चाहत चंद्र-ललाम सो।2।
गमन बिदेस न लेस कलेसको, सकुचत सकृत प्रनाम सो।
साखी ताको बिदित बिभीषन , बैठो है अबिचल धाम सेा।3।
टहल सहल जन महल-महल जागत चारो जुग जाम सो।
देखत दोष न खीझत, रीझत सुनि सेवक गुन-ग्राम सो।4।
जाके भजे तिलोक -तिलक भये , त्रिजग जोनि तनु तामसो।
तुलसी ऐसे प्रभुहिं भजै जो न ताहि बिधाता बाम सो।5।
(158)
कैसे देउँ नाथहिं खोरि।
काम-लोलुप भ्रमत मन हरि भगति परिहरि तोरि।1।
बहुत प्रीति पुजाइबे पर, पूजिबे पर थोरि।
देत सिख सिखयो न मानत, मूढ़ता असि मोरि।2।
किये सहित सनेह जे अघ हृदय राखे चोरि।
संग-बस किये सुभ सुनाये सकल लोक निहोरि।3।
करौं जो कछु धरौं सचि-पचि सुकृत-सिला बटोरि।
पैठि उर बरबस दयानिधि दंभ लेत अँजोरि।4।
लोभ मनहिं नचाव कपि ज्यों गरे आसा-डोरि।
बात कहौं बनाइ बुध ज्यों , बर बिराग निचोरि।5।
ऐतेहुँ पर तुम्हरो कहावत, लाज अँचई घोरि।
निलजता पर रीझि रघुबर , देहु तुलसिहिं छोरि।6।