प्रथम अध्याय / तृतीय खंड / ऐतरेयोपनिषद / मृदुल कीर्ति
सब लोक पालों व् लोक रचना के बाद सोचा ब्रह्म ने,
अथ इनके पोषण हेतु अन्न की, सृष्टि की थी ब्रह्म ने,
निर्वाह को दिया अन्न ब्रह्म ने और जग पोषित किया,
इस रूप में अपनी कृपा को, जगत में प्रेषित किया॥ [ १ ]
सब लोक पालों व् लोक रचना के बाद सोचा ब्रह्म ने,
अथ इनके पोषण हेतु अन्न की, सृष्टि की थी ब्रह्म ने,
निर्वाह को दिया अन्न ब्रह्म ने और जग पोषित किया,
इस रूप में अपनी कृपा को, जगत में प्रेषित किया॥ [ २ ]
फ़िर सृजित अन्न ने भागने की चेष्टा, चेष्टा की विमुख हो,
मात्र वाणी से अन्न ग्रहण करना चाहते थे, आमुख हो.
पर अन्न का करके ही वर्णन, तप्त हो यदि वाणी से,
दृष्टव्य न ऐसा कहीं, अप्राप्य इस विधि प्राणी से॥ [ ३ ]
घ्राण इन्द्रिय के द्वारा भी, जीवात्मा ने अन्न को,
ग्रहण करना चाहा था, नहीं पा सका पर अन्न को.
जीवात्मा यदि सूंघ कर ही तृप्त हो सकती कभी,
तो सूंघ कर ही अन्न को धारण यहॉं करते सभी॥ [ ४ ]
इन चक्षुओं के द्वारा भी तो, अन्न धारण चाह थी,
चक्षुओं के द्वार पर धारण की न कोई राह थी.
जीवात्मा यदि ऐसा कर सकता तो दर्शन मात्र से,
तो देख कर ही तृप्त होता, अन्न केवल नेत्र से॥ [ ५ ]
यदि तृप्त हो सकता मनुष्य जो, नाम सुनने मात्र से,
नाम केवल अन्न का, सुनता वह अपने श्रोत्र से.
और सुनकर तृप्त हो जाता न जो संभाव्य है,
यह नहीं व्यवहृत प्रथा और न ही यह दृष्टव्य है॥ [ ६ ]
तब उस सृजित जीवात्मा ने अन्न को स्पर्श से,
चाहा त्वरित ही ग्रहण करना मात्र ही संपर्क से,
पर यदि संभाव्य होता ग्रहण करना विधि यथा
तो अन्न को स्पर्श से ही ग्रहण की होती प्रथा॥ [ ७ ]
जीवात्मा की अन्न को, मन से ग्रहण की चाह थी,
पर मात्र मनसा भाव से, पा सकने की न राह थी.
मनसा चिंतन मात्र से यदि ग्रहण कर सकता कोई,
पर तृप्त चिंतन से ही केवल हो नहीं सकता कोई॥ [ ८ ]
उस अन्न के द्वारा उपस्थ के, ग्रहण करने की चाह थी,
पर उपस्थ के द्वारा भी नहीं ग्रहण करने की राह थी.
यदि उपस्थ के द्वारा यह ग्रहणीय हो सकता कभी,
पर अन्न त्याग से तृप्त होता, हो नहीं देखा कभी॥ [ ९ ]
वायु अपान के द्वारा अंत में, जीव ने उस अन्न को,
मुख माध्यम से ग्रहण कर, किया ग्राह्य, अन्न विभिन्न को.
खाद्यान्न से जीवन की रक्षा करने वाले स्वरुप में,
अथ वायु जीवन प्राण का, है प्राण वायु के रूप में॥ [ १० ]
सृष्टा ने सोचा मेरे बिन, क्या हो व्यवस्था प्रक्रिय?
वाणी द्वारा वाक्, प्राण से, सूंघने की यदि क्रिया,
दृष्टि नेत्र से, श्रवण श्रोत्र से, त्वचा से स्पर्श का,
मनन मन से, कौन मैं क्या मार्ग मेरे प्रवेश का? [ ११ ]
बेध कर मूर्धा को, परब्रह्म स्वयं मानव देह में
होते प्रतिष्ठित , विदृती नाम प्रसिद्धि मानव गेह में.
परमेश की उपलब्धि के, स्थान स्वप्न भी तीन है,
ब्रह्माण्ड हृदयाकाश नभ, वही जन्म मृत्यु विहीन है॥ [ १२ ]
देखा जगत , भौतिक रचित, मानव चकित है मौन है,
अद्भुत जगत का रचयिता, यह दूसरा यहाँ कौन है?
प्रत्यक्ष पुरुषोत्तम को मन में, सर्व व्यापी को किया,
अहो ! ब्रह्म का साक्षात दर्शन शुभ्र, शुभ मैनें किया॥ [ १३ ]
अथ देह में उत्पन्न यद्यपि, देही को प्रत्यक्ष है,
इव देवता है परोक्ष प्रिय, इस हेतु ही अप्रत्यक्ष है.
नाम तो है 'इदंद्र' 'इन्द्र' परोक्ष भाव पुकारते,
अथ ब्रह्म को साक्षात करके स्वयं में ही निहारते॥ [ १४ ]