प्रथम अध्याय / द्वितीय खंड / ऐतरेयोपनिषद / मृदुल कीर्ति
सृष्टा सृजित सब देवता, जब जग जलधि में आ गए,
उन्हें भूख प्यास से युक्त ब्रह्म ने, जब किया अकुला गए.
तब देवताओं ने कहा, मम हेतु प्रभु स्थान दो,
स्थित हों जिस पर, अन्न भक्षण कर सकें, वह विधान दो॥ [ १ ]
गौ गात लाये ब्रह्म तब, उन देवताओं के लिए,
मम हेतु नहीं पर्याप्त भगवन, दूसरा कुछ दीजिये
परब्रह्म ने तब गात अश्व का, देवताओं हित रचा,
यह भी नहीं पर्याप्त प्रभुवर और न हमको रुचा॥ [ २ ]
तब देवताओं को, ब्रह्म ने, मानव शरीर की सृष्टि की,
यह सुकृति देवों को रूचि, प्रभु ने कृपा की दृष्टि की.
तुम अपने योग्य के आश्रयों में, देवताओं प्रविष्ट हो,
मानव शरीर ही श्रेष्ठ रचना, सकल रचना विशिट हो॥ [ ३ ]
बन अग्नि मुख में वाक्, वायु प्राण बन कर नासिका,
रवि नेत्र बन और दिशा श्रोतम, रूप औषधि रोम का.
बन म्रत्यु देव अपान वायु, नाभि में स्थित हुए,
और चंद्र मन बन हृदय में, जल वीर्य बन स्थित हुए॥ [ ४ ]
भूख और पिपासा ने ब्रह्म से, की याचना कुछ दीजिये,
तब ब्रह्म ने देवांश में से ही, अंश दोनों को दिए.
अथ देवताओं द्वारा हवि जो, इन्द्रिओं से ग्रहण हो,
वह ही परोक्ष में भूख प्यास का अंश देवों से ग्रहण हो॥ [ ५ ]