प्रिय प्रवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / त्रयोदश सर्ग / पृष्ठ - ५
क्षमा नहीं है खल के लिए भली।
समाज-उत्सादक दण्ड योग्य है।
कु-कर्म-कारी नर का उबारना।
सु-कर्मियों को करता विपन्न है॥81॥
अत: अरे पामर सावधान हो।
समीप तेरे अब काल आ गया।
न पा सकेगा खल आज त्राण तू।
सम्हाल तेरा वध वांछनीय है॥82॥
स-दर्प बातें सुन श्याम-मुर्ति की
हुआ महा क्रोधित व्योम विक्रमी।
उठा स्वकीया-गुरु-दीर्घ यष्टि को।
तुरन्त मारा उसने ब्रजेन्द्र को॥83॥
अपूर्व-आस्फालन साथ श्याम ने।
अतीव-लाँबी वह यष्टि छीन ली।
पुन: उसी के प्रबल-प्रहार से।
निपात उत्पात-निकेत का किया॥84॥
गुणावली है गरिमा विभूषिता।
गरीयसी गौरव-मुर्ति-कीर्ति है।
उसे सदा संयत-भाव साथ गा।
अतीव होती चित-बीच शान्ति है॥85॥
वनस्थली में पुर मध्य ग्राम में।
अनेक ऐसे थल हैं सुहावने।
अपूर्व-लीला व्रत-देव ने जहाँ।
स-मोद की है मन-मुग्धकारिणी॥86॥
उन्हीं थलों को जनता शनै: शनै:।
बना रही है ब्रज-सिध्द पीठ सा।
उन्हीं थलों की रज श्याम-मुर्ति के।
वियोग में हैं बहु-बोध-दायिनी॥87॥
अपार होगा उपकार लाडिले।
यहाँ पधारें यक बार और जो।
प्रफुल्ल होगी ब्रज-गोप-मण्डली।
विलोक ऑंखों वदनारविन्द को॥88॥
मन्दाक्रान्ता छन्द
श्रीदामा जो अति-प्रिय सखा श्यामली मुर्ति का था।
मेधावी जो सकल-ब्रज के बालकों में बड़ा था।
पूरा ज्योंही कथन उसका हो गया मुग्ध सा हो।
बोला त्योंही 'मधुर-स्वर से दूसरा एक ग्वाला॥89॥
मालिनी छन्द
विपुल-ललित-लीला-धाम आमोद-प्याले।
सकल-कलित-क्रीड़ा कौशलों में निराले।
अनुपम-वनमाला को गले बीच डाले।
कब उमग मिलेंगे लोक-लावण्य-वाले॥90॥
कब कुसुमित-कुंजों में बजेगी बता दो।
वह मधु-मय-प्यारी-बाँसुरी लाडिले की।
कब कल-यमुना के कूल वृन्दाटवी में।
चित-पुलकितकारी चारु आलाप होगा॥91॥
कब प्रिय विहरेंगे आ पुन: काननों में।
कब वह फिर खेलेंगे चुने-खेल-नाना।
विविध-रस-निमग्ना भाव सौंदर्य्य-सिक्ता।
कब वर-मुख-मुद्रा लोचनों में लसेगी॥92॥
यदि ब्रज-धन छोटा खेल भी खेलते थे।
क्षण भर न गँवाते चित्त-एकाग्रता थे।
बहु चकित सदा थीं बालकों को बनाती।
अनुपम-मृदुता में छिप्रता की कलायें॥93॥
चकितकर अनूठी-शक्तियाँ श्याम में हैं।
वर सब-विषयों में जो उन्हें हैं बनाती।
अति-कठिन-कला में केलि-क्रीड़ादि में भी।
वह मुकुट सबों के थे मनोनीत होते॥94॥
सबल कुशल क्रीड़ावान भी लाडिले को।
निज छल बल-द्वारा था नहीं जीत पाता।
बहु अवसर ऐसे ऑंख से हैं विलोके।
जब कुँवर अकेले जीतते थे शतों को॥95॥
तदपि चित बना है श्याम का चारु ऐसा।
वह निज-सुहृदों से थे स्वयं हार खाते।
वह कतिपय जीते-खेल को थे जिताते।
सफलित करने को बालकों की उमंगें॥96॥
वह अतिशय-भूखा देख के बालकों को।
तरु पर चढ़ जाते थे बड़ी-शीघ्रता से।
निज-कमल-करों से तोड़ मीठे-फलों को।
वह स-मुद खिलाते थे उन्हें यत्न-द्वारा॥97॥
सरस-फल अनूठे-व्यंजनों को यशोदा।
प्रति-दिन वन में थीं भेजती सेवकों से।
कह-कह मृदु-बातें प्यार से पास बैठे।
ब्रज-रमण खिलाते थे उन्हें गोपजों को॥98॥
नव किशलय किम्वा पीन-प्यारे-दलों से।
वह ललित-खिलौने थे अनेकों बनाते।
वितरण कर पीछे भूरि-सम्मान द्वारा।
वह मुदित बनाते ग्वाल की मंडली को॥99॥
अभिनव-कलिका से पुष्प से पंकजों से।
रच अनुपम-माला भव्य-आभूषणों को।
वह निज-कर से थे बालकों को पिन्हाते।
बहु-सुखित बनाते यों सखा-वृन्द को थे॥100॥