रामाज्ञा प्रश्न / पंचम सर्ग / सप्तक ५ / तुलसीदास
रुख निपातत खात फल, रक्षक अक्ष निपाति।
कालरूप बिकराल कपि, सभय निसाचर जाति॥१॥
कलास्वरूप भयंकर आकृतिवाले हनुमान्जी (वनके) रक्षकों तथा अक्षयकुमारको मारकर वृक्षोंको गिरा रहे हैं तथा फल खा रहे हैं (उन्हें देखकर) निशाचरमात्र डर गये हैं॥१॥
(प्रश्न-फल निकृष्ट है।)
बनु उजारि जारेउ नगर कूदि कूदि कपिनाथ।
हाहाकार पुकारि सब, आरत मारत माथ॥२॥
श्रीहनुमानजीने अशोकवन उजाडकर कूद-कूदकर लंका जला दी। सब (राक्षस) हाहाकार करके चिल्ला रहे हैं और दुःखी होकर सिर पीट रहे हैं॥२॥
(प्रश्न-फल अशुभ है।)
पूँछ बुताइ प्रबोधि सिय आइ गहे प्रभु पाइ।
खेम कुसल जय जानकी जय जय जय रघुराइ॥३॥
पूँछ बुझाकर श्रीजानकीजीको आश्वासन देकर, लौटकर (हनुमान्जीने) प्रभु श्रीरामजीका चरण पकड़्कर कहा 'श्रीजानकीजी जीवित हैं और कुशलसे हैं, उनकी जय हो! श्रीरघुनाथजीकी जय हो! जय हो!! जय हो !!!॥३॥
(प्रश्न-फल अशुभ है।)
सुनि प्रमुदित रघुबंस मनि सानुज सेन समेत।
चले सकल मंगल सगुन बिजय सिद्धि कहि देत॥४॥
(यह) सुनकर श्रीरघुनाथजी अत्यन्त प्रसन्न हुए एवं छोटे भाई लक्ष्मण तथा सेनाके साथ वे (लंकाके लिये) चल दिये। (उस समय) सभी मंगल शकुन होने लगे, जो विजय और सफलताकी घोषणा कर रहे थे॥४॥
(प्रश्न-फल यात्राके लिये शुभ है।)
राम पयान निसान नभ बाजहिं गाजहिं बीर।
सगुन सुमंगल समय जय कीरति कुसल सरीर॥५॥
श्रीरामजीके प्रस्थानके समय आकाशमें (देवताओंके) नगारे बज रहे हैं। वीर (वानर) गर्जना कर रहे हैं। यह शकुन मंगलकारी है, युद्धमें विजय, किर्ति मिलेगी, शरिर सकुशल रहेगा॥५॥
कृपासिंधु प्रभु सिंधु सन मागेउ पंथ न देत।
बिनय न मानहिं जीव जड़ डाटे नवहिं अचेत॥६॥
कृपासागर प्रभुने समुद्रसे (लंका जानेका) मार्ग माँगा, पर वह (मार्ग) देता नहीं। मूर्ख प्राणी प्रार्थना करनेसे नहीं मानते, बुद्धिहीन लोग तो डाँटनेसे ही झुकते हैं॥६॥
(प्रश्न-फल झगडा़ सुचित करता है।)
लाभु लाभु लोवा कहत, छेमकरी कह छेम।
चलत बिभीषन सगुन सुनि, तुलसी पुलकत प्रेम॥७॥
'लाभ होगा, लाभ होगा' यह लोमडी़ कह रही है, कुशल होगी, यह चील सूचित कर रही है। ये शकुन (श्रीरामकी ओर) चलते समय विभीषणजीको हुए, यह सुनकर तुलसीदास प्रेमसे रोमांचित हो रहा है॥७॥
(प्रश्न-फल श्रेष्ठ है।)