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विनयावली / तुलसीदास / पद 131 से 140 तक / पृष्ठ 10

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पद (136-11) से (136-12) तक

(136-11)

सेवत साधु द्वैत-भय भागै।
श्रीरघुबीर-चरन लय लागै।।

देह-जनित बिकार सब त्यागै।
तब फिरि निज स्वरूप अनुरागै।।

अनुराग सो निज रूप जो जगतें बिलच्छन देखिये।
सन्तोष, सम, सीतल, सदा दम, देहवंत न लेखिये।

निरमल, निरामय, एकरस, तेहि हरष- सेाक न ब्यापई।
त्रैलोक-पावन सो सदा जाकी दसा ऐसी भई।।

(136-12)

जो तेहि पंथ चलैं मन लाई।
 तौ हरि काहे न होहिं सहाई।

जो मारग श्रुति-साधु दिखावै।
 तेहि पथ चलत सबै सुख पावै।।

पावै सदा सुख हरि-कृपा, संसार -आसा तजि रहै।
सपनेहुँ नहीं सुख द्वैत-दरसन, बात कोटिक को कहै।।

द्विज, देव, गुरू , हरि , संत बिनु संसार-पार न पाइये।
यह जानि तुलसीदास त्रासहरन रमापति गाइये।।