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एक चाय की चुस्की / उमाकांत मालवीय
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21:56, 3 जनवरी 2011
बातचीत की ।
इन्हीं के भरोसे क्या-क्या नहीं सहा
छू ली है
एक नहीं
सभी
, एक-एक
इन्तहा ।
एक
कसम
क़सम
जीने की
ढेर उलझनें
दोनों
गर
ग़र
नहीं रहे
बात क्या बने ।
देखता रहा सब कुछ सामने ढहा
मगर
किसी के
कभी
किसी का
चरण नहीं गहा ।
</poem>
अनिल जनविजय
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