शकुन्तला / अध्याय 13 / भाग 1 / दामोदर लालदास
मुद्रिका नृप-हाथ पडि़तहिं अवधि शापक गेल।
तपवनक सभ बात झक-झक दृष्टिगोचर भेल।।
मन पड़ल गान्धर्व व्याहक सरस सर्व प्रसँग।
मन पड़ल प्राणप्रिया-सड. रम्यतम रस-रंग।।
मन पड़ल प्रिय प्रेयसिक निर्मल सनेहक रूप।
मन पड़ल नव हाव-भावक रीति-नीति अनूप।।
मालिनी-तट कुंज-कौतुक-खेल मन पडि़ गेल।
अपन व्याकुलता पड़ल मन ताहि रमणिक लेल।।
मन पड़ल अपनहिं करें सुमने प्रिया श्रृंगार।
मन पड़ल क्रीड़ा-कलापहिं सरस कुंज-विहार।।
तृषित हरिणक शावकक जल-पान-कौतुक खेल।
आई नृपकें तपवनक सभ बात मन पडि़ गेल।।
मन पड़ल चलबाक क्षण प्राणप्रिया केर बोल।
‘आब कहिया ई मधुर स्वर मनहिं क्षण-क्षण डोल।।
प्रीति-परिचय दैत रत्नक मुद्रिका पहिराय।
राजधानी कयल भूप प्रयाण कष्ट उठाय।।
पद्मिनिक पद्माननक ऊपर भ्रमर-गुंजार।
हाथसँ जकरा उड़ाबथि रमणि वारंवार।।
अकछि सखिसँ कहल अलिसँ प्राण-रक्षक लेल।
से भ्रमर-लीलो नृपतिकें आइ मन पडि़ गेल।।
कोन भूत सवार पर छल! न सकलहुँ जानि।
आगता प्राणप्रिया सकलहुँ न हम सम्मानि।।
व्याह धरिकें झूठ कहि-कहि तजल व्यंग्यक बाण।
चन्द्रमुख-दर्शनहुँसँ नहि कयल हम पहिचान।।
प्रीति-आश लगाय अइली प्रियतमा एहि ठाम।
किन्तु बनि निष्ठुर परम हम आब छी बदनाम।।
उदित होयत भेल मनसे कतेक मधु अरमान।
किन्तु ने हम कयल स्वागत, ने कयल सम्मान।।
प्रियतमा केर सभ मधुरतम स्नेह हम बिसराय।
खण्ड-खण्डित कयल मानस बज्र-बाण चलाय।।
जनिक कयलहुँ स्नेह करसँ फूल लय श्रृंगार।
हाय तनिकहि उपर विधिवश कयल प्रखर प्रहार।।
व्यंग्य वचनक बाणसँ जर्जर जखन से भेलि।
स्वाभिमान सतीक जागल, तमकि क्रोधहि गेलि।।
कहल भृकुटि चढ़ाय ढारति नयन झर-झर नोर।
‘बेश परिचय देल प्रेमक! कय कलंकिनि शोर।।
अपन परिणीतो प्रियाकें छिः कयल पर-नारि।
ई हमर अपमान सँगहि पुरु-कुलक भेल गारि।।
तकर नहिं सँकोच कनियो धर्म कयलह ध्वस्त।
तखन लगलहुँ धर्म छाँटय भय अधर्महि व्यस्त।।
पुरु-कुलक धर्मक ध्वजा तोड़ल, न भेल गलानि।
उच्च ध्वज खसबैत चुरुओ भरि न भेटल पानि।।
उच्च वंशक बुझि विभुषण अपन तन मन देल।
किन्तु देखल आइ-छलिया अँहक सन के भेल!’
सुमिरि ई सभ वचन प्राणप्रियाक कृत घिक्कार।
डुबल छी हम अपन दुष्कृति-रूप पारावार।
नीच की नीचातिनीचहि हमर भेल विचार।
आइ से सब सुमिरि अपनहुँकें करी धिक्कार।।’
आइ नीक न लाग नृपकें रतिहुँ भोजन शैन।
डबा-डबा जल उमडि़ आबय क्षणहिं क्षण पर नैन।।
राज-काजो दिशि न भूपक होय अल्पहुँ ध्यान।
आइ छथि शोकाकुलित सभ भाँति भूप महान।।
मंत्रिहिंक ऊपर पटकि सभ राज्य-कार्यक भार।
मधुर माधवि-कुंजमे नृप कयल निज बैसार।।
जतय ऋतुराजा वसन्तक छल समागम भेल।
तरु लतादिक मंजु मधु मुसुकैत मंजरि देल।।
सुमन-सौरभ भरि मुसुकि चलि रहल सरस समीर।
कुहुकि कोकिल मानवक मन दैछ मन्मथ-पीर।।
सुमन सुमनक उपर मधुमय मधुप कर गुंजार।
चहचहाहटि मधुर यत्र विहंगहुँक सुखसार।।
चित्र-फलकक उपर चित्रित करथि तपवन-चित्र।
छल जतय मुनि कण्व आश्रम दर्शनीय पवित्र।।
प्रथम चित्रण कयल द्रुम-लतिकाक प्रिय उद्यान।
जतय विकसित विविधनव-नव सुमन अति छविमान।।
सजल घट लय सखि-सभक सँग पटबइत सभ फूल।
वल्कलावृत प्रियतमाक मनोज्ञ छवि सुख मूल।।
रचथि चन्द्राननक ऊपर भ्रमर-गुंजन चित्र।
अकछि हाथ उठाय उड़बति चित्र परम पवित्र।।