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शकुन्तला / अध्याय 13 / भाग 2 / दामोदर लालदास

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सखिगणक सँग मुदित बैसलि प्रियतमा केर रूप।
चित्र-फलकक उपर चित्रित करथि दिव्य अनूप।।
कतहु मालिनि-सरित विरचथि, ततहि राजमराल।
कतहु नगराजक तटिमे चरति हरिणिक जाल।।

कतहु लटकति विटप पर वल्कलक दिव्य दुकूल।
जकर तरमे हरिण-हरिणिक प्रीति मोदक मूल।।
कतहु रचलनि चित्र प्राणप्रियाक फूल श्रृंगार।
लखि जकर लालित्य-चित्रण मनक हो न सम्हार।।

नृप छला मर्मज्ञ चित्रकलाक, हाथक सिद्ध।
तें रचल प्रत्यक्ष सन सभ चित्र दृश्य प्रसि़द्ध।।
चित्र रचि-रचि प्रेयसिक नृप होथि आकुल-चित्त।
प्रियतमाक प्रतक्ष आनन-चन्द्र-दर्श-निमित्त।

क्षणहिं क्षण सुमिरथि प्रियाक विशुद्ध स्नेहक रीति।
क्षणहिं क्षण निज निठुर व्यंग्यक सोचि निष्ठुर नीति।।
क्षणहिं क्षण से सभ सुमिरि झर-झर झरैछल नोर।
क्षणहिं क्षण निज कृतिक पश्चात्ताप धरि नहि थोर।।

हा! उड़ा लय गेलि के चकचैन्हि ज्योति पसारि?
कतय तनिकाँ जाय ताकब? करब कतय पुछारि?
अप्सरा-कन्या छली! की इन्द्रपुरिये गेलि?
की हमर कटु उक्तिसँ प्राणन्त कहुँ कय लेलि!

अहह! नहि-नहि, गुर्विणी छलि! छलिनि धर्मक ज्ञान।
भ्रूण-हत्या-पाप-डरसँ तजि न सकती प्राण।।
किन्तु छथि आकाशमे की उतरि गेलि पाताल?
शोकसँ दगधलि छली हमरे कृते सुविशाल।।

कतय जाउ? पठाउ ककरा? जैत के कोन ठाम?
की न देखब प्रेयसिक मुख-चन्द्र हम सुखधाम?
हा विधाता! कोन दुर्मति-भूत शिर चढि़ गेल!
जाहिसँ प्राण-प्रिया-मुख-चन्द्र, दुर्लभ भेल!!

प्रेयसिक विरहें वसन्तोत्सवहु भ ‘गेल बन्द।
दिवस चैन न रात निन्दहिं मलिन नृप-मुख-चन्द।।
रजनि भरि पर्यंकपर जल-हीन जहिना मीन
छटपटाइत उनटि-पुनटहि रहथि भूपति खीन।।

दर्शनीयो दृश्य दिशिसँ नयन लैछथि मोडि़।
किछु न लागय नीक प्राणप्रियाक सुमिरन छोडि़।।
खनहुँ करतल-मुद्रिकासँ करथि कत सँलाप।
‘मुद्रिके, कयलह तहूँ बुझि पड़य बड़-बड़ पाप।।

अन्यथा अति मृदुल कचनारक कली रतनार।
त्यागि प्राणप्रियाक आंगुर जाय डुबितय धार!
की हमर भावी दुखक कय कष्टमय मन-तर्क
ससरि प्राणप्रियाक करसँ डूबि पड़यल नर्क?

जलहुमे नहि डूबल रहलह, गेलह रोहित-पेट।
जतय मत्स्यक धृणित आंतक कुण्डलीक लपेट।।
घृणित थलमे दिन गमाबक पड़़ल जे प्रति याम।
प्रेयसिक दुर्लभ करज तजबाक ई परिणाम।।

किन्तु भाग्यक आव अरुणोदय भेलय कर आबि।
हमहुँ छी नहि कम उपक्रम मुद्रिके! तोहि पाबि।।
जा न आयल छलह करमे सुमति छल हत भेल।
अपन परिणीतो प्रिया हा! चिन्हल धरि नहि गेल।।

हमर कर पडि़तहिं भेलह तों दिनमणीक समान।
मानसक घन तिमिर फाटल! भेल दिव्य नयान।।
सुझल जत तम-तर पड़ल छल विमल ज्ञनाभासँ
सुझल मुनि कण्वक तपोवन, सुझल अवनि-अकाश।।

सुझल सभटा अपन दुष्कृति! सुझल प्रेयसि-प्रीति।
सुझल प्रेयसि-सँग क्रीडा-कौतुकक सभ रीति।।
प्रियतमापर कटुवचन-बौछार सभ सुझि गेल।
सुझल निश्चल प्रेयसिक सभ बात सत्यहि भेल।।

मुद्रिके ! तें हम कते दिअ धन्यवाद-दुलार।
हमर तों ही आबि कयलह सत्य बड़ उपकार।।
जनिक आँगुरसँ ससरलह से देखाबह आब।
तैखने मुख चूमि तोहर बुझल दिव्य प्रभाव।।’

प्रियतमाक वियोगमे वसुधेश एहि प्रकार।
मुद्रिकोसँ करथि अति वि़क्षिप्त सन व्यवहार।।
विरहमै एहने परिस्थिति ककर नहि भं जाय?
जड़ जलद पठबथि प्रिया-गृह मेघदूत बनाय।

क्यों भ्रमर, क्यो कोकलहिकें सौंपि दूतक भार।
अपन दुखक समाद प्रेषित करथि कहि विस्तार।।
विरहिणिहुँ कहुँ पवन के पठबथि अपन प्रिय-पासँ
विविध निज कष्टक कथा कहि राखि मिलनक आश।।

प्रिय अथच प्रेयसि-विरहमे ककर मन रही थीर!
मन मथन कय दैछ सभकें असह मन्मथ-पीर।।
उन्मते-विक्षिप्त सन सभहक अलाप-प्रलाप।
पावकहुँसँ अधिक दग्धकर हो अधिक विरहक ताप।।