शकुन्तला / अध्याय 14 / भाग 1 / दामोदर लालदास
एक दिन नृप रहथि बैसल माधवीहिंक कुंज।
छल लता-गृह जतय शोभित सुमन पुंजक पुंज।।
मंत्रिवर प्रेषित कयल न्यायार्थ नव अभियोग।
देखि वसुधाधीशकें भेल मानसक किछु शोग।।
बात छल धनमित्र सेठक माल भरल जहाज।
गेल डुबि सँयोगवश जल-मार्ग, जलधिक राज।।
धनक अन्तक सँग-सँगहि सेठहुक भेल अन्त।
सेठ धरि सामान्य नहि छल! विभववान अनन्त।।
धनहिं छल प्रिय मित्र, धनमित्रक महा आधार।।
धनहिं सँचय हित चलैछल तकर नित व्यापार।
घरहुमे घन-सम्पतिक छल राशि अपरम्पार।
किन्तु एकहु पुत्र बिनु छल़-वंश भेल अन्हार।।
‘जखन सन्ततिहीन अछि धनमित्र सर्व प्रकार।
राजाकोषहिंमे जमा हो तकर धन-भण्डार।।
ताहि समबन्धे जेहन हो राजकीयादेश।
तदानुसार थिक हमर कर्त्तव्य वेश-विशेष।।
पढ़ल प्रतिवेदन अमात्यो अति दुखित-चित भेल।
अपन सन्तति-हीनतहुँ दिशि न्पक मानस गेल।।
हमहुँ छी धनमित्र सेठहिं तुल्य पुत्र-विहीन ।
हमर की होयत धनक गति-सोचि नृप छथि दीन।।
छोडि़ धनमित्रक धनक किछु न्यायपूर्ण विचार।
नृपति चिन्तन करय लगला अपन वंश-अन्हार।।
हमर निधनक बाद के रक्षा करत ई राज?
के प्रजा-पालक करत, के करत शासन-काज?
देत के जल-पिण्ड हमरहु सुगति के प्रिय देत?
गतिर्नास्ति अपुत्रके-नहि प्राप्य स्वर्ग-निकेत।
की उजडि़ये जैत सभविधि राज्य, राज्यक वंश?
जानि ने हा! कोन जन्मक दुरित-फल कुलध्वंश!