शकुन्तला / अध्याय 18 / भाग 1 / दामोदर लालदास
एतादृशे परम चिन्तत भेल भूप।
वाणी अनेक तंह बाजथि चुप-चुप।।
तत्काल एक मधु-वाक्य सुधा-समान।
भूपालकें त्वरित शीतल कैल कान।।
‘रे ढीठ ! ढीठ! सुन बैन हितार्थ मोर।
चापल्य और हठ-बाति कठोर छोड़।।
अत्यन्त तें अकचकाय दृगो उठाय।
चौचंक भेल उठला नृप बाजि-हाय!’
सत्प्रेम-पूर्ण सभ प्राणि एतै अशंक।
अत्यन्त कान्त, शुचि, शान्त तपोवनांक।।
चापल्य शब्द ककरा प्रति के सु बाज?
ई ताड़नाक अछि की एहि ठाम काज?
तत्काल देखल द्मौ वसुधा-अधिश।
दू टा तपस्विनि अबै छथि कुंज दीश।।
आगाँ अबैछ शिशु एक झुमैत धाय।
लै एक सिँह-शिशु कांख-तरे दबाय।।
क्रीडार्थ से खनहुँ दैछ मही खसाय।
कौकाल केश धय खींचय ताहि, हाय।।
कुंजोटमे ओम्हर सिंहिनि मूह बौने।
गुर्राय ताकि रहले, भृकुटी चढ़ौने।।
ई वीर बालकक किन्तु विलोकि कोप।
भै गेल सत्य, जनु सिंहनि-शौर्य लोप।।
क्रोधान्ध भै लखय यद्यपि से अपार।
लाचार भेल डरसै न करै प्रहार।।
‘ले छिंग-छावक अले! मुक कोल-कोल।
तँतावली गनब आइ अवछ्य तोल।।
नै तँ कछाय बतका छतका बजालि।
लै लब तांत छवता एकने उकालि।।’
एतादृशे बजति कांख-तरे दबौने।
छुनू स्वकंज-करसँ मुखकें बबौने।।
ओ सिंह-शाव किंकिआय डरें अपार।
हा! हा! न छोड़य तथापि ह्ठी कुमार!!
कुंजाकंसँ ओम्हर डांटथि एक वाम।
‘रे छोड़-छोड़, अछि ई तपभूमि ठाम।।
कोनो प्रकार ककरो नहि होय कष्ट।
से नेम पाल, जानि हो नय-मार्ग-भष्ट।।
सन्तान-तुल्य सभ जीव एतै समान।
अन्याय हाय! कर तों न एते महान।।
हा! हा! अभीष्ट भरि पीलक से न छीर।
हा! देख तें छटपटाय भुखें अधीर।।
कुंजाकंसँ ओभ्हर सिंहिनि से कराल।
क्रोधान्ध भै झपटि टूटत एहि काल।।
से बैन के श्रवणगोचर से कुमार।
की शौर्यपूर्ण हंसि बाजल बार-बार!!
‘रे सिँह-शावक अरे! मुख खोल-खोल।
दन्तावली गनब आइ अवश्य तोर।।
नै तँ खसाय भटका सटका बजारि।
लै लेब दाँत सबटा एखने उखाड़ी।।
अँ बेछ-बेछ अम देकब-मालि देत!
धेंत मतोलि अमला चिलि-फालि लेत!!
ऊँ! ऊँ! बअूत दल ओय! क्आं पलाउ?
ऊँ! के बतात? ककला लग जा नुकाउ?
से कर्णगोचन करैत कहैछ वाम।
‘हूँ’, सत्य सर्वदमने अछि तोर नाम।।
नमानुसारहुँ कहूं गुण विश्व-ख्यात।
से देखि तोर नव शौर्य मिलैछ बात।।
हा! किन्तु, भूखल अबोध मृगेन्द्र-बाल।
की तोर शौर्य-समता करते विशाल?
ई खेल छोड़ प्रिय वत्स! हंसी करौना।
ले, अन्य आनि हम दैत छियो खेलौना।।
तत्काल वीर शिशु से सुनि मंजु वाणी।
सानन्द मंजुल पसारि स्वकीय पाणी।।
देखू, मंगैत मुसुकैछ, कहैछ-‘ला’! ‘ला’!
छे लेब, लेब एकने छुकछ विछाला।।
ई दृश्य देखि वसुधाधिप से नरेश
की की बजै छथि, सुन मुदपूर्ण बेश।।
‘की हा! अपूर्व शिशुता, मृदुता अनूप!
लावण्य केर जनु सद्यह से स्वरूप।।
‘हँ, बेश, बेश, हम देखब मारि देत।
घेंटी मचोडि़ महरा चिरि-फाडि़ लेत।।
ऊँ! ऊँ! बहूत डर होय, कहाँ पड़ाउ?
ऊँ! के बाचत? ककरा लग जा नुकाउ?
की मंजु बाल-दशानावलि स्वच्छ बेश!
आकण्ठ श्यामल प्रलम्बित स्निग्ध केश!
की लाल ओ अधर-पल्लव चित्तहारी!
की नग्नता! हृदय-लोचन-मुग्धकारी!!
की शौर्य-पूर्ण नव क्रान्ति विकासमान।
की बाल-बैन! मधु-सिक्त-सुधा-समान।
जे देखि-देखि, सुनलोपर हो न तृप्ति।
अत्यन्त होय मन-वृद्धि तदर्थ लिप्ति।।
से धन्य! धन्य! छथि निश्चय धन्य! धन्य।
सौभाग्यशील तनिकां सम हो न अन्य।।
जे नित्य ई शिशुक देखथि सच्चरित्र।
ओ कोरकें करथि जे शिशु लै पवित्र।।
चांचल्य की मधुरिमाक अपूर्व कन्द।
की तेजसँ भरल फुल्ल मुखारविन्द।।
आनन्दमूर्ति शिशु सौख्यप्रदो अपार।
सौभाग्यशील ऋषि कोनक ई कुमार?
निर्भीकता तकर बेश अपूर्व भेलं।
जे सिंह-शावकहिं सँग करैछ खेल।।
लै हाथ एक लटका शिशुमे अबोध।
की सिंहनीक सटकाबय सर्व क्रोध!