शकुन्तला / अध्याय 18 / भाग 2 / दामोदर लालदास
ओ सिंह-शाबहुँक हा! न चलैछ दाप।
की शौर्य! साहस! तथा अकथ-प्रताप!
जे काल बाज अधबोल हंसाय दृष्टि।
से काल होय जनु चन्दु सुधाक वुष्टि।।
सौभाग्य-शक्ति-परिपुर्ण, न तेज सुप्त।
सर्वांग चक्रवरतीक सुचिहृ-युक्त।।
की दिव्य से सटल आंगुर लाल-लाल।
मानू प्रभात अरविन्दहि हो रसाल।।
की तेजपूर्ण द्युतिसँ शिशु ठाढ़ भेल।
अंगार ठा़ढ़ जनु सद्यय काष्ठ लेल।।
अत्यन्त होय मन आतुर किन्तु मोर।
लै ली उठाय, मुख चुमि स्वकीय कोर।।
ओ माधुरी-भरल कोमल बाल -वैन।
ओ फुल्लपंकज समान सुदीर्घ नैन।।
अत्यन्त से दृग-मनोहर बाल-कान्ति।
सम्पूर्ण से अमर दै अछि दिव्य शान्ति।।
अंगावलीट झट स्पर्श करै-निमित।
की हेतु होय अति आकुल मोर चित्त।
नैनालि हा! नहि करैछ कहुँ प्रयाण।
फुल्लारविन्द-मुख-माधुरि त्यागि पान।।
मानैछ चित्त नर्हि इ मम आजु दाब।
की हेतु हा! उठय देखि सुतत्व-भाव।।
की पुत्रहीन हम छी जनु, तें निमित।
पु़त्रत्व-भाव भरि व्याकुल होय चित्त।।
तत्काल बाजलि तपस्विनि सँह फेरि।
‘ई हा! न मानत’ लगाबह तें न देरि।
हे सुब्रते! ललित माटिक ओ मयुर।
जा, शीघ्र आनि करु बाल-अभीष्ट पूर।।
जा गेलि ओ ओम्हर आनय शीघ्र धाय।
ता सिंह-सँग शिशु फेरि एतय खेलाय।।
केशो घिचैछ, पकडंछ मृगेन्द्र-घेंट।
हा! भेल आइ तकरो शिशु-शुर भेंट।।
अत्यन्त गंजन विलोकि मृगेन्द्र-बाल।
भैकें दयाद्रं तमरा प्रति तें विशाल।।
तत्काल बाजलि तपस्विनि सोदगार।
‘हां! क्यों एतै न अछि की ऋषि के कुमार।
जे ई हठी परम बालकें बुझाबै।।
ओ सिंह-शावकक प्राण बुझा बचाबै।।
दुष्यन्तकें ततय देखल एकमात्र।
छाया अशोक तर बैसल दिव्य गात्र।।
वात्सल्य और करुणा-रस सानि-सानि।
भूपेन्द्रसँ कहल मानिय कानि कानि।।
‘हे साधु-पुंगव! अहीं उठि शीघ्र जाउ।
आ ओ मृगेन्द्र-शिशुकें शिशुसँ बचाउ।।
दुष्यन्त से सुनि तै अविलम्य जाय।
माधुर्य-पूर्ण रव देल तहां सुनाय।।
‘ओ! औ हठी ऋषिकुमार! करु विचार।
ई हैत आश्रम-विरुद्ध क्रिया-प्रहार।।
सम्पूर्ण प्राणिपर प्रेम-प्रपूर्ण दृष्टि।
दे पूर्वजो अहंक कैज दयेक वृष्टि।।
हां! किन्तु नीति शुचि से अँह तोडि़ आज।
की छी करैत मुख पुर्वजके सलाज।।
हा! ई अदोष तपभूमि न हो सदोष।
से कार्य थीक कर्तव्य एतै न रोष।।
तें मानु-मानु प्रिय वत्स! ममोपदेश।
ई खेल त्यागु, न बढ़ाउ मृगेन्द्र-क्लेश।।
से बाजिकें लपकि लेल उठाय कोर।
आन्नदमे नृपति भेल महा बिभोर।।
स्वर्गीय सौख्य धु्रव कैल नृपेन्द्र प्राप्त।
बालांग छूबि सभ भेल व्यथा समाप्त।।
आन्नदमग्न नृप सोचथि बार-बार।
हा! कोन बंशक विभूशण ई कुमार,।
अंगावल जकर छूलहुँ एक बेरि।
आनन्द सौख्य उर भेल एते धनेरि।।
हा! की कथा तनिक सौख्यक तै अपार।
जे भाग्यशीलक अहा! अछि ई कुमार।।
से सत्य धन्य! ऋषिवर्य सु धन्य-धन्य!
जे प्राप्त कैल सुत-रत्न भटाग्रगण्य।।
तत्काल बाजलि तपस्विनि वाणि-सार।
‘ई बाल थीक ऋषीके न अहो ! कुमार।।
ई थीक सत्य पुरुवंश-प्रदीप बाल।’
भूपेन्द्र हर्ष-विस्मययुत भै विशाल।।
जिज्ञास कैल-कहु देवि! पिताक नाम।
वा कौन भांति शिशु आयल एहि ठाम।।
ई देवताक तमभूमि पवित्र बेश।
कोनो मनुष्य न करै सहज-प्रवेश।।‘
से प्रश्न कै श्रवणगोचन से सुवाम।
सुस्पष्ट बाजलि तदुतर की ललाम!
‘मातामही शिशुक ख्यात विशुद्ध नाम।।
से मेनकेक बल आयल एहि ठाम।।
हा! हा! पिता शिश्क यद्यपि सुप्रधान।
निन्द्यो न हाय! तनिका सन विश्व आन।।
निर्दोष गुर्विणिहुँ जे तिय त्यागि देल।
से पातकीक नहि जाइछ नाम लेल।।
दुष्यन्त जानि अपने पर ई कटाक्ष।
आशा प्रपूर्ण हंसि ऊठल वारिजाक्ष।।
उत्कण्ठता तनिक आव बढ़ै ललाम।
जानंक हेतु शिशुके शुभ मातृ-नाम।।
हा! किन्तु आन रमणीक पुछैत नाम।
नीतिज्ञ साहस हेरायल ताहि ठाम।।
तत्काल किन्तु तपसीनि मयूर आनि।
क्रीड़ाई बालहिं बजाबथि प्रेम सानि।।