शकुन्तला / अध्याय 2 / भाग 1 / दामोदर लालदास
विमल परम क्षत्रिय-कुल-भूषण पृषण-तेज-निधाने।
ज्ञानसागर अपार महिमधर निरत ब्रह्म-पद-ध्याने।।
से कौशिक तपनिष्ठ तपोधन सघन-विपिनमे भारी-
दुस्सह करथि तपस्या-साधन लोक-प्रकम्पनकारी।।
पत्र खाय, पिबि पवन क्रमहिं क्रम साघल से मुनि काया।
अस्तु, विविध वर्षोपरान्त सकला हटाय मुनि माया।।
निराहार रहि वर्ष कतेको महा तपोवत-धारी।
कयलनि मन एकाग्र बह्म-पद-ध्यान-सुदृढ़ भेल भारी।।
लाल-लाल झलकल युग लोचन जटा-जाल बढि़ गेले।
सुखमय नीड़ बनाय विहंगम जतय करैछल खेले।।
पृष्ठदेश कुश-डाभ-भरल छल जनु लघु बनल वनाली।
दीप्त भेल ई घोर तपनसँ मुनि-मुख-मण्डल-लाली।।
धह-धह लहरि, तनिक तप-तेजक अमरावति धरि गेले।
तहि ज्वालें भय विकल अमरगण छटपट करहत भेले।।
भोजन, शयन सोहाय न कनिकहुँ छुटल पूजा-अर्चा।
दिवा-रात्रि सभ ठाम चलय लागल मुनिहिंक तप-चर्चा।।
हमरो सबहिं अनेक तपोधन ऋषिवर्यंक तप देखल।
किन्तु, तपस्या उग्र तेजमय हिनकहि एहन निरेखल।।
अमरपुरिक शासनक सूत्रधर पाकशसनहुँ जैता।
तप-तेजक बल यैह महामुनि पाकशासनहि हैता।।
चिन्ता तकर कथी लै शक्रक मुखमण्डलपर धमकत?
बुझता जखन सिँहासन ऊपर मुनिवर-आसन चमकत!
अस्तु, भरल ईष्यासँ सुरगण इन्द्र-भवनपर ऐला।
कैल विनम्र निवेदन सभटा सुनि सरेन्द्र घबरैला।।
कहल सुरेश ‘करू चिन्ता जनि’ देखइत रहू सुदृष्टि।
ऐखन मित्र मदन पठबाक‘ कयदेवनि तपभ्रष्टी।।
अमरावतिक प्रसिद्ध नर्तकी रमणि मेनका आउति।
हाव-भाव-लीला-लावण्ये मुनि-तप-तेज सठाउति।।
अयला ऋषि-मुनि-दर्प-दलन कन्दर्प सुस्वागत पौलनि।
शचीनाथ कौशिकक तपोवनमे पिठि ठोकि पठौलनि।।
अपन बसन्त-सखा लय मदनो अयला तहि तपवनमे।
आविर्भाव भेल ऋतुराजक वन-उपवन-कण-कणमे।।
मुसुकि उठल विटपादि लतावलि मंजरि विविध सुमनसँ।
महमह भेल सकल वन-उपवन गमकनि-भरल पवनसँ।।
फूल-फूलपर भनन-भनन-भन गुंजन भ्रमरक जागल।
मधु-मद पीबि लुबुधि मंजरिपर भेल मधुव्रत पागल।।
बैसि रसाल-डारिपर कोइलि कुहु-कुहु मधुमय कूकय।
मानु बैसि कदमक शाखापर मोहन बंशी फूकय।।
से मधुरध्वनि श्रुतिगोचर कय जीव-जन्तु मद-मातल।
जप-तप-योग-ध्यान-निदिध्यासन सबहुक गेल रसातल।।
जीव-जन्तु कामान्ध मत्त बनि चराचरक सभ जागल।
मदोन्मद्मा भय, मदनदेव-पूजनमे मानव लागल।।
पशु-पक्षी धरिमे मदान्धता, कामुकद्मा अभिरामा।
नहु-नहु रगडि़ रहल श्रृंगें मृग हरिणिक लोचन-वामा।।
सरस वसन्तक वासन्तिकता ककरा नहि अलगौलक?
वन-विहंग धरिम कामातुरता-तरंग लहरौलक।।
सभ जागल पर विकट तपोवन मुनिक समाधि न टूटल।
तखन त्रिजगविजयी कन्दर्पक प्रखर सुमन-शर छूटल।।