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शकुन्तला / अध्याय 5 / भाग 1 / दामोदर लालदास

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छल द्युतिमन्त अनन्त वसन्तक मधुर समागम भेले।
द्विगुणित शोभाधाम तपोवन छल सभ विधि भय गेले।।
लता-विटप सभ नव-नव पल्लव भरल मनोहर भारी।।
शीतल-मन्द-सुगन्ध-पवन बह, हीतल शीतलकारी।।

गुल्म लता किशुक पाटल भल फुलल रसाल-रसाले।
विकसित चम्पक, मधुक मनोरम कुसुमित परम प्रियाले।
द्रुम अनार, कचनार फुलायल कर्णिकार विस्तारे।
कुंज-कुंज सभ कुसुम-पुंजसँ शोभित भेल अपारे।।

लाल-लाल सुरसाल रसालक मंजरि अनुपम शोभे।
मद-उन्मद जतय मधुपावलि लुबुधल माधुरि-लोभें।।
बुझिपड़, मधुकर-माल धनुष-गुणपर धय मंजिरि-तीरे।
कामी जनक चित्त भेदय जनु अयला ऋतुपति वीरे।।

सौरभ़-भरल-सुमन-विकसलपर अलिमालाक अपारे।
होइछ अखिल माधुरी-पूरित श्रवण-सुखद गुंजारे।।
मंजुलता, मधुता, मनमोहकता छल अनूप भहीके।
सँगहिं से लालित्य वसन्तक अन्त करय बिरहीके।

बँसि रसाल-डारिपर कोकिल कुहुकि-कुहुकि कत गाबै।
बुडिपड़ दिग-दिगन्तमे अनुपम माधुरिये बरिसाबै।।
व्यापकता मन्मथक मनोरम देल पसारि वसन्ते।
कीट-पतंग अनंग-तपासँ छल सन्तप्त अनन्ते।।

मधुमय कुसुम-पात्रमे दम्पति मधुकर बैसल सँगे।
पीबि-पीबि मधु चुमय परस्पर मुख, बश-भेल अनंगे।।
कतहुँ श्रृंगसँ कृष्णसार मृग कामातुर अभिरामा।
मन्द-मन्दसँ रगडि़ रहल आछि हरिणिक लोचन बामा।।

अपन उच्छिष्ट मृणाल-तन्तु लय चक्रवाक कहुँ धाबै।
निज प्रियतमा चक्रवाकीके स्नेह-समेत खुआबै।।
कतहुँ कंज-मकरन्द-भरल जल करिणी मनसिज-भारें।
लए-लए प्रियतम गजहिं पिआबय सहित स्नेह-विस्तारे।।

अंगराग युत नव कुचमण्डल ततहुँ प्रलम्बित माला।
विविध विलास-प्रदीपक भूषण धारथि नव कुल-बाला।।
लखि बसन्त-कृत-कंज-चारुतापूर्ण सुभग श्रृंगारे।
पतिमे लपटि कोन से कामिनि करय न चाह विहारे।।

कुसुम-भारसँ लता लबलि छलि, मदन-भारसँ बाला।
गन्धि-भारसँ पवन मंद चल, मधु-भारें अलिमाला।।
मधु-मद-भारें सरस मधुरिमा उछलय कोकिल-गाने।
जे सुनि मानिनि लपटि लतावत पतिमे त्यागथि माने।।

अस्तु, अलौकिक भरल माधुरी छल मधुमय मधुमासे।
रवि-कर सह्य, चंन्द्रिका शीतल, जलदहीन आकाशे।।
विकसल कमल-भरल, निर्मल जलसँ सर शोभ अनूपे।
चलय मनोरक मलय-समोरण मन्द-मन्द सुख रूपें।।

सरस बसन्तक समय मनोहर! ततहुँ प्रभातक काले।
मन्द-मन्द गतिसँ चलइत छल शीतल पवन रसाले।।
कुहुकि रहल छल कतहुँ कोकिला, चहकय कतहुँ विहंगे।
मुसुकि-मुसुकि नभ आबि रहल छल शोभा भरल पतंगे।।

परिमल-रसिक भ्रमर-भारसँ सर डोलि रहल अरविन्दा।
खन मधु पिबय, थूकरय खन, मधु, मुखभरि उड़य मिलिन्दा।।
खन सेमारपर पंक्तिबद्ध भय बैसि सुराग सुनाबै।
बुझिपड़ कलाकार सँगीतक वीणा मधुर बजाबै।।

रजनी बितल, देखि सूर्योदय, चक्रवाक हर्षायल।
प्रिया चक्रवाकीसँ मिलनक दिव्य सुअवसर आयल।।
हिलि-मिलि भेल समारम्भन दुहुके सानन्द विहारक।
बिसरल रैनि-विरह दम्पतिके, भेल मिलन सुखकारक।।

से लालित्य देखैत एक दिन श्री दुष्यन्त महीपे।
अयला मृगयासक्त मनोरम से तपवनक समीपे।।
धावामान भेल मृग पाछाँ एक महा मनहारी।
रथपर चढ़ल परम उत्साहित कर खर धनु-शरधारी।।

बजला-‘देख, रथी! मृग सुन्दर भागल जाइछ दूरी।
कतहुँ- कतहुँ सँ अंटकि तकैअछि पृष्टदेश घुरि-घुरी।।
कौखन मोरि लैछ ग्रिव सुन्दर, कौखन घास चिबाबै।
कौखन तीर-त्राशसँ शंकित अंग-अंग गैंचाबै।।

देख, राशिकेर ढ़ील तुरंगक लय कुरंग झट घेरी।
दवकि रहत घन वनक खण्डमे जँ किछ लागत देरी।।
‘ऊँच-नीच धरती छल, तैं हम रोकि-रोकि रथ लैलहुँ।
किन्तु आब की! -कहल सारथी-‘देखु, देखु मृग धैलहुँ!’

भागो, जते दूर से भागत, ऐखन से पकड़ायत।
काल तकर मरड़ाय रहल अछि! जते दूर से जायत।।
से कहैत उड़बैत तुरंगम भरि उत्साह अनूपे।
सारथि आनि कुरंग-निकट रथ, कहल बेश चुप-चूपे।।

देखू प्रभो ! ओतय अँटकल अछि, झट शर मारू! मारू!
की विलम्ब! बस, आगाँ-पाछाँ जनि किछु आब विचारू।।
लखि कटिबद्ध भूपके तैखन-एक तपोव्रत धारी-
हाथ उठाय, बजैत कुंजसँ बहरैला हितकारी।।

‘आश्रम-हरिण! अहो, ई आश्रम-हरिण! दया-दृग धारू।
अछि अबध्य सभ भाँति अहा हा! जनि एकरा शर मारू।।
सुनि से आर्त तथा करुणामय वाणी धर्म-वधारल।
गगन-खसल-सन हतोत्साह भय भूपति तीर उतारल।।

भेटल आर्शीर्वाद मनोहर-‘अखिल लोक यशव्यापी।
भूप! चक्रवत्र्ती सुत पायब-‘अहँ रवि-तुल्य-प्रतापी।।
से मुनि मुदित विनम्र भवसँ पुण्य तपोवन देशे।
सारथि सहित पौर-कुल-भूषण कैल प्रजेश प्रवेशे।।

तत्क्षण कुहुकि उठल कोकिल कुल मनहर मधर सुरीती।
मानु, महीपक शुभागमनपर गाओल स्वागत गीती।।
सौरभ भरल मधुर अति शीतल रस-रस बहय समीरे।
श्रान्त जानि तपवन जनु पंखा करइछ प्रेम-अधीरे।।

आगाँ विविध लता विनम्र छलि कुसुमित शाखावाली।
मानु, लता-मालिनि धैने छलि-मंगल फूलक डाली।।
पवन चलैछ झरय कुसुमावलि, मंजर तरुक अपारे ।
मानु, दूभि-फुल छीटि विप्रगण करथि मंगलाचारे।।

आगु-पाछु मधु-लुब्ध करय गुंजार मधुर अलिमाला।
जनु, वन्दीगण नृपक गबैछल विरुदावली रसाला।।
रथ गति अथच पवन झकझोरें बाल-लता झुकि आवै।
युगल पार्श्वसँ दास-वृन्द जनु मंगल-चैर डोलाबै।।

पवितहिं रहथि एतादृश अनुपम सुख स्वागतक रसाले।
फरकि उठल दक्षिण भुज भूपक शुभसूचक तत्काले।।
से विलोकि आश्चर्यचकित नृप कहल-‘अहो भुज! ई की!
फरकि एतय मंगल फल हमरा प्राप्त करैवह की की!’

किन्तु विचारल पुनः महीपति वेश विचारागारे।
की आश्चर्य! प्रवल भावी हो, बन्द तकर नहि द्वारे।।
अस्तु, देखि अवसर पुनि सुन्दर छवि रसज्ञ से भूपे।
कहल विनोद समेत रथीसँ वचन समय अनुरूपे।।