शकुन्तला / अध्याय 5 / भाग 2 / दामोदर लालदास
की लालित्य अपूर्व अहा! ई तपोवनक मनहारी।
श्रान्ति-कलान्ति-हर शान्ति प्रदायक हीतल शीतलकारी।।
देख रथी! मुनि-अन्न विटप सभतर छिरेयैल अपारा।
आनलगेल खसल कोटरसँ जे शुक, विहगक द्वारा।।
कहुँ-कहुँ देख, शिला-खण्डावलि, पड़ल विनिर्मल भारी!
पिसथि हिंगौट जाहिपर मुनिगण-शान्त-दया-रसधारी।।
कतहुँ-कतहुँ मृगवृन्द टहलि-चरि रहल अशंकित भेले
तथा शिलापर बैसि कतेको मुदित करैअछि खेले।।
हवन-धूमसँ कहुँ तरु-पल्लव केहन झुलसि भेल कारी।
पर्णकुटीर लता-आच्छादित कतहुँ भवन मनहारी।।
ठाम-ठामपर बनल वेदिकापर राखल मृगछाला।
कतहुँ-कतहुँ तरुवरक डारिपर लटकल जापक माला।।
अहा! अहा! की विपिन-जन्तुमे अछि दृढ़ ऐक्यक भावे।
हिंसो, तपोवनक मानै अछि अनुशासनमय दाबे।।
पंचाननहिंक सँग चरै अछि हरिण, धेनु, तपवनमें।
वैर भाव कहुँ देखि पड़य नहि, प्रेमे पशुहुँक मनमे।।
कतहुँ कमण्डल, कुश आसन कहुँ, कतहुँ दिव्य फुलवारी।
केहन पवित्र, कतेक विनिर्मल आश्रम सभ मनहारी।।
कहुँ-कहुँ कदली-कुंज मनोरम! केहन ललितगर लागै।
कतहुँ दिव्य आराम रसालक अछि रोपल अनुरागे।।
कतहुँ हवन भय रहल जकर सौरभ समीर भरि पसरै।
की आमोद भरल साकल्यक घूम गमक वन ससरै।।
एहन तपोवन सनक शान्ति जगतीतलमे कत भेटत।
मन नहि चाहय हटक एकहु क्षण! श्रान्ति एतहिं सभ भेटत।।
ऋषिकुमारगण स्नान-ध्यान कय वेद ऋचा उच्चारथि।
बैसल निकटहिं महाचार्य ऋषि त्रुटि बालकक सुधारथि।।
की मनोज्ञ से दृश्य लगै अछि! श्रवण-नयन नहि हँटकै।
वेदोच्चार-छटा-शोभापर क्षण-क्षण लोचन लटकै।।
उमड़ल प्रवल लालसा भूपक पैसि तपोवन देखी।
ऋषि-मुनि-दर्शन करी! जुड़ावी नयन, महासुख लेखी।।
से विचारि सराथिसँ बजला-‘रथसँ तुरग हँटाबह।
छाहरिमे, थाकल तुरंगहुँक पीठि, खोलि ठंढावह।।
से कहि बढि़ आगाँ महीपवर सघन विटप तर अयला।
ततहिं सुनल ऋषि-कन्यागणहुँक गप-सप सुनि ललचैला।।
‘एम्हर! एम्हर! सखि! एम्हर पटा जल! देख लता ई प्यासल।
तोरे नलक प्रतीक्षा करइछ, प्यासें वेश तरासल।।
सुनितहिं नृपक खिचायल मानस ताकल आँखि उठाकें।
देखल सखिगण सँग अनूपम सुन्दरि शकुन्तला कें।।
नव्य यौवनक भव्य ज्योतिसँ तपवन ज्योतित कैने।
पुष्पोद्यान पटाय रहलि छलि कटिपर जलघट धैने।।
टपकि रहल छल अंग-अंगसें मदिर अनंगक रंगे।
जे अवलोकि नृपेन्द्र हृदयसँ उछलल रसक तरंगे।।
देखि हास-परिहास परस्पर सखिगण बीच रसाले।
लगला सुनय सरस मधु माधुरि श्रवण खोलि नरपाले।।
प्रियंवदा सखि व्यंग करैछलि सहित मधुर मुसुकाने।
‘बुझल! बुझल’! सखि! तोहर गड़ल छह जतय जाहि हित ध्याने।।
जहिना अपन योग्य तरु पौलक ई लवलतिका बेली।
तहिना योग्य वरक इच्छासँ वशीभूत तहुँ भेली।।’
‘धर, धर धैर्य, धैर्य किछ दिन धरि! हो न उताहुलि भारी।
पिता अबैछथि सोम तीर्थसँ याबत हे सुकुमारी।।
अबितहिं ताकि योग्य वर अनता, तुअ सम विधुवदनी लै।
पाल, एखन कद्माव्र्य अपन सखि! एतेक अधीर कथी लै।।
से सुनि, मुसुकि मोरि मुखमण्डल नव शकुन्तला बाला।
लजें गड़लि-गड़लि भय बाजलि कीं मधुवयन रसाला।।
״एतबे कार्य नित्य सखि! तोहर, बुझि पडै़छ, रहि गेले।
हँसब-हसायब, व्यंग उड़ायब, विविध खेलायब खेले।।״
एतय नृपति बैसल तरु-तरसँ देखथि-सुनथि समोदे।
कहथि मनहिं-मन होय अहा! की मधुर विनोद-प्रमोदे।।
कुसुमोद्यान बीच विचरै छथि की भरि अनुप उमंगे।
बनदेवी जनु, टहलि रहलि छथि स्वयम् सखीगण सँगे।।
अहा! अहा! ओ किन्तु, थिकि के पिकि करैछथि माते।
नव तारुण्य छटासँ की दिव! झलकि रहल मृदु गाते !!
मधुर माधुरी भरल जनिक उत्फुल्ल नयन-अरविन्दे।
भटकि-भटकि जत लटकि रहल लोचन-रसिक-मिलिन्दे।।
तारागणमे यथा चन्द्रिका, नदी सबहिंमे गंगे।
छथि तथैव शोभित से सुन्दरि एतय सखीगण सँगे।।
की लालित्य भरल मधु बाजब! मदिर चरण सँचारे।
की मनहर चंचला विनिन्दक मधु मुसुकनि रस सारे!!
की प्रफुल्ल सुमनावलि भूषणसँ छबि बढ़य अनन्ते!
जंगम लतातुल्य से सुन्दरि कोमलांगि द्युतिमन्ते।।
समटि बाहु-लतिकापर धैने शेष विनिन्दक केशे।
अहा! सकलविधि देखि पडै़छवि थाकलि बेश विशेषे।।
छथि बड़ श्रान्त लता सिंचनसँ नतस्कंध भय गेले।
घटक भारसँ रक्तवर्ण हा! हा! करतल छनि भेले।।
अहा! अहा! श्रमजनित धामसँ भीजल तनिक कपोले।
श्रवण-सुमन सटि रहल जतय छनि मनहर परम अमोले।।
कोमलांगि जलभरल वारिघट तैयो हाथ उठौने।
पटा रहल छवि लतावलीकें अनुपम प्रीति बढ़ौने।।
रूप मदन-मद-मथन मनोरम! तन्वी ई दृश बाला!
गिरि सम कठिन कार्य सौंपल के तनिका हाय! विशाला?
ताहि महामुनि कण्वक कीदृश होयत हृदय कठोरे।
नव पंकजपर पाथर पटकल! छथि विवेकहुँक थोड़े!!
युक्तियुक्त नहि कुसुम-कलीपर राखब पात पुराने!
झाँपल रत्नखण्ड गरदा तर हो नहि शोभामाने!!
तदनुरूप फुल्लांगिनि तन पर दुखप्रद और मलीने।
शोभा रहल बिगाडि़. अनुक्षण वल्कल शोभाहीने।।
आहि! आहि! हा! की हम बजलहुँ! नहि भेल उचित विचारे।
बल्कल-रचित कंचुकिहुँ तन्विक तन पर शोभागारे।।
‘की सेमार-सँकुलित सरोजक शोभा होइछ थोड़े।
की दामिनिकेर ज्योति बिगाड़य जलद घटा घनघोरे!!
रूपवतीकें सब शोभामय, नहि! किछु करय कुरूपे।
अनुप माधुरी भरल अहा! की नव नागरिक स्वरूपे।।
युगल अधर से नव पल्लव अछि! बाहु डारि समतूले।
अभिनव यौवन, सैह तकर अछि नव विकसित मृदु फूले।।
कनक लताक नाम सुनले छल! देखल आइ नयाने।
की श्रमसँ विधि हा! कयलनि अछि कनकलता निर्माणे।।
किन्तु, ककर कन्या थिकि सुन्दरि हरिणि-नयनि से बाला।
जनिक रूपमाधुरि पर लुबुधल मम दृग-मधुकर-माला।।
नहि-नहि, ई कन्या समान्य नहि! मन होइछ अनुमाने।
अमरसुता सनि सभगुण आगरि छथि लावण्य निधाने।।
यदि से नहि, तें क्षत्रियहिंक थिकि! शंका ततय न लेशे!
कारण? हमर चित्र हिनकहिंमे अछि अनुरक्त विशेषे!!
सज्जन हृदय-भावना मिथ्या उठय न कोनहुँ काले।
तें प्रत्यक्ष बोध होइल अछि-हमर योग्य ई बाले।।
थिक ज्ञातव्य तथापि हिनक धु्रव परिचयवंश समग्रे।
जाहि हेतु भय रहल हमर मन, लोचन, श्रवण सुव्यग्रे।।
किन्तु, सुमुखिसँ बात करक नहिं अवसर हाय! देखै छी।
विनु अवसरें इष्टसिद्धिक नहि आन युक्ति निरखै छी।।
क्षण आयल सखिसँ जिज्ञासा कयलनि वसुधाधीपे।
नव तारुण्य ज्योतिसँ ज्योतित जे छथि अहँक समीपे।।
से सखि कहू कोन ऋषिराजक छथि मनहारिणि कन्या?
परिचय हिनक सुनी कनि की छथि सुरकन्या छवि धन्या?’
उत्तर कहल सखीगण-‘कौशिक मुनि-क्षत्रिय-कुल-ख्याता।
सैह पिता हिनकर छथि राजन्! तथा मेनका माता।।
मुनिवर कण्वक पिता एकमात्र छथि यैह पालिता कन्या।
हिनक रूप-गुण कतेक कहब हम! स्कल भाँति छवि धन्या।।