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शरशय्या / तेसर सर्ग / भाग 17 / बुद्धिधारी सिंह 'रमाकर'

 “अन्धकारसँ ज्योति समूह।
दिश चलु” सुनलहुँ वेदक मूँह।।101।।
लए विद्युत नहि हो संहार।
उपयोगक हो सतत विचार।।102।।

हे धर्मेश! कहब की तत्त्व।
राखब निश दिन प्रेमक सत्त्व।103।।
संघर्षणसँ आगिक सृष्टि।
आनए दुखमय पाप अदृष्टि।।104।।

बहए सुशीतल मन्द समीर।
पावन सरिता तब पर धीर।।105।।
जीवक जीवन जीवन ख्यात।
पुनि बिहारिसँ हो उत्पात।।106।।

तामससँ हो झंझाबात।
देखब नहि हो बृक्ष निपात।।107।।
निर्मल स्वच्छ गगन विधि देल।
ततए जखन जन क्रन्दन गेल।।108।।