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शरशय्या / दोसर सर्ग / भाग 10 / बुद्धिधारी सिंह 'रमाकर'

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यद्यपि सभ जन कुरु सन्तान।
लोक सुयोधन कौरव जान।।47।।
पाण्डव कहबथि पाँचो बन्धु।
बनल सहोदर भेल सुबन्धु।।48।।

बिच पितिऔतक भाव अमित्र।
बढ़ल सुयोधन कृति अपवित्र।।49।।
भेल कतेक विरोधक हेतु।
छल दुर्योधन ग्रह जनु केतु।।50।।

भारतवर्षक जत जन ईश।
कएल प्रयत्न बढ़ए नहि रीश।।51।।
प्रतिनिधि पाण्डव पुरुष पुरान।
“पाँच गाम दए करु सम्मान“।।52।।

कहल सुयोधनसँ शुभ बूझि।
किन्तु न हुनका छेलन्हि सूझि।।53।।
कहलन्हि “सूचिक अग्र न देव।
युद्धिहिंमें सभ उत्तर लेव“।।54।।