भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

शरशय्या / दोसर सर्ग / भाग 12 / बुद्धिधारी सिंह 'रमाकर'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कौरवके सेना निज देल।
कृष्ण अपन कर धुनष न लेल।।66।।
बजला “अपने धरब न बाण“।
सुनल भीष्म धए हुनकर ध्यान।।67।।

कएल प्रतिज्ञा वचन उपचार।
“प्रभुक कराएव चक्र प्रचार“।।68।।
अर्जुन भीष्म मचल संग्राम।
खसल न कथमपि पाकल आम।।69।।

वर्षए शरजनु धारापात।
भेल न एकक तदपि निपात।।70।।
तोड़ल बृद्ध किरीटिक यान।
टूटल रथ तत गति नहि आन।।71।।

भेल क्रुद्ध-मति नन्दक लाल।
काँप्ए देह आँखि भेल लाल।।72।।
पहिआ भग्न हाथमे लेल।
पूर प्रतिज्ञा भीष्मक भेल।।73।।

भक्त राज कर जोड़ि समक्ष।
भरल नोरसँ दूनू अक्ष।।74।।
कहलन्हि “महिमा अहँक अनन्त।
दुःख न हमरा हो, यदि अन्त।।75।।