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शरशय्या / दोसर सर्ग / भाग 4 / बुद्धिधारी सिंह 'रमाकर'

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छोड़ि माए सुरपुर चलि गेली
धएलन्हि आंगुर तात।
करथि पुछारी लगन्हि न कनि’ओ
दुःखद किरण बसात।।15।।

चक्रवर्तिराजक हम एकसर
पाबि राज्य-अधिकार।
बढ़िके पओने रहलहुँ सभदिन
कोरक हुनि अधिकार।।16।।

क्षणभरि चिन्तित देखि हमर मन
पूछत बारंबार।
एहन न शुद्ध भावसँ पूरित
देखी नेहक सार।।17।।

किछु नहि कए सकलहु हम हुनकर
उचित तथा उपचार।
हुनि ऋणसँ हम मुक्ति न पाएब
करब कोन उपकार?।।18।।