भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

शरशय्या / पहिल सर्ग / भाग 2 / बुद्धिधारी सिंह 'रमाकर'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

देवतुल्य जग बीच नित
रहए हुनक यश नाम।
आनक हेतुक तजथि जे
अर्थ-मोह-मनकाम।।6।।

आर्यभूमिमे जनमि कत
भेला वीर प्रमाण।
दया-दान-अति-समरमे
अनिका सन नहि आन।।7।।

भरल पड़ल अछि विभव कत
सरस्वतीक भण्डार
पूर्व पुरुष साजल कते,
सद्गुण रत्नागार।।8।।

कविगण काव्यक ओटमे
विलहल कत सन्देश।
ऋषि मुनि भूतल आबिके
देलन्हि अछि उपदेश।।9।।

लिखल तपस्वी पंक्ति जात
थिक जगतक पाथेय।
तें होइछ नभ बीचमे
अनुछन वन्दित गेय।।10।।