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शरशय्या / पहिल सर्ग / भाग 8 / बुद्धिधारी सिंह 'रमाकर'

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पण दए वजला-‘‘सुनु सुनु हमरो
बात एक दए अपनो ध्यान।
देव अपन हम दुहिता करमे
हो जँ हमरो बचनक मान।।37।।

पुत्ररत्नसँ यदपि समन्वित
देखौ जानी सब टा बात।
किन्तु राजपद पाबए हमरो
नाति अहाँ कहु सागर सात’’।।38।।

लए अवकाश विचारक हेतुक
अएला राजभवनमे खिन्न।
घएलन्हि खाट वाट नह सूझन्हि
पड़ल छला रहि सबसँ भिन्न।।39।।

बृद्ध सचिव कएलन्हि जिज्ञासा
अति लजाए वजलाह अभीष्ट।
आबि कुमारक लगमे सबटा
राखल हुनक विषय अनिष्ट।।40।।

देवब्रत युवराज-हृदय छल
प्रौढ़ मानु हिमशिखर प्रशान्त।
भय नहि होइत छल किछु मनमे
आबथि जइओ क्रुद्ध वृतान्त।।41।।