भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
शरशय्या / पहिल सर्ग / भाग 9 / बुद्धिधारी सिंह 'रमाकर'
Kavita Kosh से
सगबगाइत छल सतत हुनक हिय
“कोना पाएब त्याग निमित्त”।
सुनि अएला निज तातक सम्मुख
खोलि अपन देलन्ह ओ चित्त।।42।।
अवनत-आनन पिता-बदन लखि
कहल “करब हम दुःखक अन्त।
जाइत छी हम चिन्ता त्याग
पूर हैत अभिलाष तुरन्त”।।43।।
धीबरगृहमे पहुँचि युबकवर
मॉगल कन्या छोड़ि विषाद।
राखल कन्यापिता हुनक लग
जे छल जानल पहिलुक बाद।।44।।
गांगेय कहल भय सम्मुख
“साक्षी हमरो कुलक प्रकाश।
शशिवरकर हम देखि करैतछी
राज्यत्याग कए शपथ-प्रकाश।।45।।
तनयातनय करत सम्पत्तिक
भोग हमर पैतृक जे राज।
उठु करू अर्पित कन्या तातहिं
नहि विलम्ब होईप्सित आज”।।46।।
अति प्रसन्न भए नौकाचालक
कहलन्हि “केहन बुद्धि-विचार।
धन्य अहाँ छी त्याग धन्य अछि
गाओत गाथा धु्रव संसार।।47।।