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"कम पड़ रहीं बारूदें / योगेंद्र कृष्णा" के अवतरणों में अंतर

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15:03, 9 जून 2008 के समय का अवतरण

आसान नहीं था

शवों को गिनना

मुकम्मल शवों को

ढोया जा रहा था

पर जिनके चिथड़े उड़ चुके थे

वे मरने के बाद भी

मृतकों में शुमार नहीं थे


किसी हवाई जहाज दुर्घटना

या महामारी ने

नहीं लीं उनकी जानें

नहीं मरे वे भूख से


मारे गए क्योंकि

सहमे डरे नहीं थे वे

वे नंगे पांव नंगे हाथ

लड़ रहे थे

अपने समय के

सबसे बड़ झूठ से


शवों की गिनती जरूरी थी

कि समय रहते

पता लगाया जा सके

कितने लोगों ने

झूठ के विरोध में

कितने सच बोये

कितने कंधों ने

कितने शव ढोये


ताकि वे जान सकें

कि कल और कितनी

बारूदों की जरूरत

उन्हें पड़ सकती है


वे माहिर थे

आंकड़ों के इस खेल में

बड़े हिसाब से लगाते थे

बारूदी सुरंग

इसलिए कि

पथरीले अनगढ़ सच की तुलना में

बहुत कम थीं

बारूदें इस प्रदेश में...