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+ | फिर कोई विभिषण | ||
+ | भेद किये जा रहा है | ||
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+ | जो छुपा मन के | ||
+ | छल कपट | ||
+ | अंहकार अपने | ||
+ | चला है अचला से | ||
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+ | रचना: महावीर जोशी पुलासर (सरदारशहर) राजस्थान |
16:14, 28 अक्टूबर 2021 का अवतरण
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रचना... महावीर जोशी पूलासर
पुराणी_तस्वीर
कागज पर असीर
बन जाती है
उम्र की एक कब्र
कुरेदता हूँ
जब भी उसको
पूछती है ...... उस्ताद
मुझे कैद कर आजाद
रहने वाले ...तुम्हारी
ताब-ऐ-तासीर
तबाह क्यूँ है ?
उम्र के .........
किस पड़ाव पर हो ?
मेरे हिस्से की रोटी
जिल्लत सी लगती है
जिन्दगी तब
जब ..........
मेरे ही हिस्से की रोटी
कालकूट बन जाती है
हलक ढलने से पहले
परोसी जाती है जब
मुझसे पहले
छापा पत्र पर
वृहत विशाल
इश्तिहार की थाली मे
राजनिती की
स्वार्थ साधक
रोटी बनकर
- रचना_महावीर_जोशी_पुलासर_सरदारशहर_राजस्थान
मानव
मानव तेरे
रूप भयंकर
अलग अलग
सब मे है अन्तर
कोई हीरा
कोई निकले कंकर
कई कपटी
कई भोला शंकर
नरभक्षी
करते कुछ तांडव
कई मानव
कई लगते दानव
By. महावीर जोशी पुलासर
सरदारशहर (राजस्थान)
मुखोटा
धधकती आग उत्कट, , विकट आवाज दहाड़ चेतनतत्तव की अठ्हास किया लंकापति ने विस्मय मन से देखा जब दंभ, दर्प, मद कोप भरे मुखोटे के पीछे छुपे कलयुगी राम को दहाड़ा दशानन फिर कोई विभिषण भेद किये जा रहा है क्यूँ जन मानस से साथ जो छुपा मन के छल कपट अंहकार अपने चला है अचला से तिमिर मिटाने को ‐------------ रचना: महावीर जोशी पुलासर (सरदारशहर) राजस्थान