भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"आलम खुर्शीद" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 12: | पंक्ति 12: | ||
|अंग्रेज़ी नाम=Alam Khursheed, Aalam khurshiid | |अंग्रेज़ी नाम=Alam Khursheed, Aalam khurshiid | ||
}} | }} | ||
+ | {{KKShayar}} | ||
<sort order="asc" class="ul"> | <sort order="asc" class="ul"> | ||
* [[हर घर में कोई तहख़ाना होता है / आलम खुर्शीद]] | * [[हर घर में कोई तहख़ाना होता है / आलम खुर्शीद]] |
22:18, 29 जनवरी 2010 का अवतरण
आलम खुर्शीद
क्या आपके पास चित्र उपलब्ध है?
कृपया kavitakosh AT gmail DOT com पर भेजें
कृपया kavitakosh AT gmail DOT com पर भेजें
जन्म | 11 जुलाई 1959 |
---|---|
जन्म स्थान | आरा, बिहार |
कुछ प्रमुख कृतियाँ | |
नये मौसम की तलाश, ज़हरे गुल, ख्यालाबाद, एक दरिया ख़्वाब में, कारे ज़ियाँ | |
विविध | |
जोश मलीहाबादी अवार्ड (1999), बिहार उर्दू अकादेमी अवार्ड ( दो बार 1995 और 1998 में) | |
जीवन परिचय | |
आलम खुर्शीद / परिचय |
<sort order="asc" class="ul">
- हर घर में कोई तहख़ाना होता है / आलम खुर्शीद
- तोड़ के इसको बरसों रोना होता है / आलम खुर्शीद
- थपक-थपक के जिन्हें हम सुलाते रहते हैं / आलम खुर्शीद
- हमेशा दिल में रहता है कभी गोया नहीं जाता / आलम खुर्शीद
- क़ुर्बतो के बीच जैसे फ़ासला रहने लगे / आलम खुर्शीद
- एक अजब सी दुनिया देखा करता था / आलम खुर्शीद
- नींद पलकों प धरी रहती थी / आलम खुर्शीद
- बह रहा था एक दरिया ख़्वाब में / आलम खुर्शीद
- जिस कि दूरी वज्हे-ग़म हो जाती है / आलम खुर्शीद
- देख रहा है दरिया भी हैरानी से / आलम खुर्शीद
- हाथ पकड़ ले अब भी तेरा हो सकता हँ मैं / आलम खुर्शीद
- रंग-बिरंगे ख़्वाबों के असबाब कहाँ रखते हैं हम / आलम खुर्शीद
- क्या अन्धेरों से वही हाथ मिलाए हुए हैं / आलम खुर्शीद
- कोई मौक़ा नहीं मिलता हमें अब मुस्कुराने का / आलम खुर्शीद
- ख़बर सच्ची नहीं लगती नए मौसम के आने की / आलम खुर्शीद
- हम को गुमाँ था परियों जैसी शहजादी होगी / आलम खुर्शीद
- हमारे सर प ही वक़्त की तलवार गिरती है / आलम खुर्शीद
- दरवाज़े पर दस्तक देते डर लगता है / आलम खुर्शीद
- अपने घर में ख़ुद ही आग लगा लेते हैं / आलम खुर्शीद
- जब मिटटी खून से गीली हो जाती है / आलम खुर्शीद
- मिल के रहने की ज़रुरत ही भुला दी गई क्या / आलम खुर्शीद
</sort>