भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"जब आप 'सच' बोलते हैं / रवीन्द्र दास" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: आप जब भी 'सच' बोलते हैं मेरी उँगलियाँ थरथराने लगती हैं भिंच जाती ह…)
 
 
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
 +
{{KKGlobal}}
 +
{{KKRachna
 +
|रचनाकार=रवीन्द्र दास
 +
}}
 +
{{KKCatKavita}}
 +
<poem>
 
आप जब भी 'सच' बोलते हैं
 
आप जब भी 'सच' बोलते हैं
 
 
मेरी उँगलियाँ थरथराने लगती हैं
 
मेरी उँगलियाँ थरथराने लगती हैं
 
 
भिंच जाती है मेरी मुट्ठी
 
भिंच जाती है मेरी मुट्ठी
 
 
आप भी, न जाने क्यों, मुझे दिखने लगते है
 
आप भी, न जाने क्यों, मुझे दिखने लगते है
 
 
पगुराती भैंस
 
पगुराती भैंस
 
 
जब भी आप सच बोलते हैं।
 
जब भी आप सच बोलते हैं।
 
 
नेता जी , मुझे माफ़ करें
 
नेता जी , मुझे माफ़ करें
 
 
आपकी बातें बहुत ध्यान से सुनता रहा हूँ बरसों
 
आपकी बातें बहुत ध्यान से सुनता रहा हूँ बरसों
 
 
करता रहा यकीन
 
करता रहा यकीन
 
 
कि आप जनता के शुभ चिन्तक हैं
 
कि आप जनता के शुभ चिन्तक हैं
 
 
आप चाहते हैं अपने राष्ट्र का हित
 
आप चाहते हैं अपने राष्ट्र का हित
 
 
मानता रहा कि आप जनता के सेवक हैं
 
मानता रहा कि आप जनता के सेवक हैं
 
 
लेकिन कब तक करता रहता आपकी नौटंकी पर विश्वास
 
लेकिन कब तक करता रहता आपकी नौटंकी पर विश्वास
 
 
आपसे अच्छी और मजेदार तमाशा तो फ़िल्मी नचनिया दिखाते हैं
 
आपसे अच्छी और मजेदार तमाशा तो फ़िल्मी नचनिया दिखाते हैं
 
 
हमने आपको नचनिया नहीं
 
हमने आपको नचनिया नहीं
 
 
कर्मनिष्ठ महापुरुष माना था
 
कर्मनिष्ठ महापुरुष माना था
 
 
आप निकले सत्यवादी नौटंकीबाज
 
आप निकले सत्यवादी नौटंकीबाज
 
 
लिंग, वय, वेशभूषा और भंगिमा वगैरह में तो हुए परिवर्तन
 
लिंग, वय, वेशभूषा और भंगिमा वगैरह में तो हुए परिवर्तन
 
 
किन्तु नहीं बदली तो आपकी नीयत
 
किन्तु नहीं बदली तो आपकी नीयत
 
 
जिसमे खोट तब भी थी , आज भी है
 
जिसमे खोट तब भी थी , आज भी है
 
 
और हम लोकतंत्र की मर्यादा से लिथड़े
 
और हम लोकतंत्र की मर्यादा से लिथड़े
 
 
लोकतंत्र के लोग
 
लोकतंत्र के लोग
 
 
निगलते है देखकर भी मक्खियाँ
 
निगलते है देखकर भी मक्खियाँ
 
 
आप जब भी सच बोलते हैं
 
आप जब भी सच बोलते हैं
 
 
उन शब्दों से निकलती है बदबू
 
उन शब्दों से निकलती है बदबू
 
 
अक्सर मुश्किल हो जाता है साँस लेना
 
अक्सर मुश्किल हो जाता है साँस लेना
 
 
आपके धवल वस्त्रों से
 
आपके धवल वस्त्रों से
 
 
आपकी आँखों से
 
आपकी आँखों से
 
 
आपकी प्रकम्पित जबान से
 
आपकी प्रकम्पित जबान से
 
 
बंधा चला करता है लोकतंत्र का स्थावर
 
बंधा चला करता है लोकतंत्र का स्थावर
 
 
आप जब सच बोलते हैं
 
आप जब सच बोलते हैं
 
 
हमारा ह्रदय रोता है
 
हमारा ह्रदय रोता है
 
 
नेताजी माफ़ करें
 
नेताजी माफ़ करें
 
 
कम से कम से एक चुनाव में आप आराम करें।
 
कम से कम से एक चुनाव में आप आराम करें।
 +
</poem>

09:48, 20 अप्रैल 2010 के समय का अवतरण

आप जब भी 'सच' बोलते हैं
मेरी उँगलियाँ थरथराने लगती हैं
भिंच जाती है मेरी मुट्ठी
आप भी, न जाने क्यों, मुझे दिखने लगते है
पगुराती भैंस
जब भी आप सच बोलते हैं।
नेता जी , मुझे माफ़ करें
आपकी बातें बहुत ध्यान से सुनता रहा हूँ बरसों
करता रहा यकीन
कि आप जनता के शुभ चिन्तक हैं
आप चाहते हैं अपने राष्ट्र का हित
मानता रहा कि आप जनता के सेवक हैं
लेकिन कब तक करता रहता आपकी नौटंकी पर विश्वास
आपसे अच्छी और मजेदार तमाशा तो फ़िल्मी नचनिया दिखाते हैं
हमने आपको नचनिया नहीं
कर्मनिष्ठ महापुरुष माना था
आप निकले सत्यवादी नौटंकीबाज
लिंग, वय, वेशभूषा और भंगिमा वगैरह में तो हुए परिवर्तन
किन्तु नहीं बदली तो आपकी नीयत
जिसमे खोट तब भी थी , आज भी है
और हम लोकतंत्र की मर्यादा से लिथड़े
लोकतंत्र के लोग
निगलते है देखकर भी मक्खियाँ
आप जब भी सच बोलते हैं
उन शब्दों से निकलती है बदबू
अक्सर मुश्किल हो जाता है साँस लेना
आपके धवल वस्त्रों से
आपकी आँखों से
आपकी प्रकम्पित जबान से
बंधा चला करता है लोकतंत्र का स्थावर
आप जब सच बोलते हैं
हमारा ह्रदय रोता है
नेताजी माफ़ करें
कम से कम से एक चुनाव में आप आराम करें।