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"क्या करें / यतींद्रनाथ राही" के अवतरणों में अंतर

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सूरदास जी
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कसमसाती मुट्ठियाँ हैं
बैठ झरोखे
+
तिलमिलाते हैं षिखर
मुजरा देख रहे हैं
+
पूछते, हिमनद पिघलते हैं
 +
कहो!
 +
हम क्या करें?
  
किसकी खाट खड़ी चौराहे
+
छोड़ दें ये आदतें
बरसे किस पर डन्डे
+
छिद्रान्वेशण की ग़लत
मन्दिर में भगवान सो रहे
+
इन अँधेरों में कहीं पर
भोगा लिप्त हैं पन्डे
+
रोशनी तो है
कौन ले गया भर जेबों में
+
जल रहा है एक जुगनू
सड़कें-ताल-पोखरे
+
जो निरन्तर रात भर
नंगे नाच रहे हैं किसके
+
हौसलों के साथ कुछ
ये बिगड़ैल छोकरे
+
दीवानगी तो है।
काले मुँह
+
जो धरे हैं देश के हित
बिक गए थोक में
+
सिर हथेली पर अडिग
खुदरा देख रहे हैं
+
पंथ इनके
दंश धर रहे हैं छाती पर
+
स्वस्ति वाचन
पाले थे जो विशधर
+
दीप मंगल के धरे।
रोज़ नयी दीवार खड़ी है
+
गाज गिरी है घर पर
+
कहीं धुआँ है
+
कहीं आग है
+
विश में बुझी हवाएँ
+
आगे-पीछे हर नुक्कड़ पर
+
धमकाती शंकाएँ
+
पावन संस्कृतियों का बखिया
+
उधड़ा देख रहे हैं।
+
  
उधर पड़ोसी की गुर्राहट
+
रोटियाँ सेकें नहीं
इधर शांति-पारायण
+
यह यज्ञ पावन है
खुली हवा के लिये
+
बन सकें
तरसते हैं
+
समिधा बनें
घुटते वातायन
+
अक्शत बने, चन्दन बने
दुष्ट-दलन कर मानवता के
+
ज्योति के इस प्रज्ज्वलन के
रक्शण की मर्यादा
+
याज्ञनिक हैं हम
धरी अधर पर कभी बाँसुरी
+
आहुती के घृत बनें
कभी चक्र भी साधा
+
अर्पण बनें, अर्चन बनें।
षान्त सिन्धु में
+
हो विमुग्धित गन्ध मण्डित
आज ज्वार फिर
+
मन्त्र-गुंजित युगधरा
उभरा देख रहे हैं।
+
चिन्तनों में फिर किसी
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नव ज्योति के
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निर्झर झरें।
 +
 
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स्वर हमारे
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तन्त्र प्राणों के
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समर्पित हैं
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ये उभरते ज्वार सारे बन्ध तोड़ेंगे
 +
उठ रहे हैं हरदिषा रणभेरियों के स्वर
 +
अब किसी दशकन्ध की
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लंका न छोड़ेंगे
 +
धर्म की संस्थापना-हित
 +
मन्त्रणाएँ हों विफल
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तब उचित है
 +
शस्त्र की
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संसाधनों को ही वरें।
 
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15:39, 12 अक्टूबर 2017 के समय का अवतरण

कसमसाती मुट्ठियाँ हैं
तिलमिलाते हैं षिखर
पूछते, हिमनद पिघलते हैं
कहो!
हम क्या करें?

छोड़ दें ये आदतें
छिद्रान्वेशण की ग़लत
इन अँधेरों में कहीं पर
रोशनी तो है
जल रहा है एक जुगनू
जो निरन्तर रात भर
हौसलों के साथ कुछ
दीवानगी तो है।
जो धरे हैं देश के हित
सिर हथेली पर अडिग
पंथ इनके
स्वस्ति वाचन
दीप मंगल के धरे।

रोटियाँ सेकें नहीं
यह यज्ञ पावन है
बन सकें
समिधा बनें
अक्शत बने, चन्दन बने
ज्योति के इस प्रज्ज्वलन के
याज्ञनिक हैं हम
आहुती के घृत बनें
अर्पण बनें, अर्चन बनें।
हो विमुग्धित गन्ध मण्डित
मन्त्र-गुंजित युगधरा
चिन्तनों में फिर किसी
नव ज्योति के
निर्झर झरें।

स्वर हमारे
तन्त्र प्राणों के
समर्पित हैं
ये उभरते ज्वार सारे बन्ध तोड़ेंगे
उठ रहे हैं हरदिषा रणभेरियों के स्वर
अब किसी दशकन्ध की
लंका न छोड़ेंगे
धर्म की संस्थापना-हित
मन्त्रणाएँ हों विफल
तब उचित है
शस्त्र की
संसाधनों को ही वरें।