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"एक चाय की चुस्की / उमाकांत मालवीय" के अवतरणों में अंतर

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बातचीत की ।  
 
बातचीत की ।  
 
इन्हीं के भरोसे क्या-क्या नहीं सहा  
 
इन्हीं के भरोसे क्या-क्या नहीं सहा  
छू ली है एक नहीं सभी इन्तहा ।
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छू ली है सभी, एक-एक इन्तहा ।
  
एक कसम जीने की  
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एक क़सम जीने की  
 
ढेर उलझनें  
 
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दोनों गर नहीं रहे  
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बात क्या बने ।  
 
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देखता रहा सब कुछ सामने ढहा  
 
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मगर किसी के कभी चरण नहीं गहा ।
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मगर कभी किसी का चरण नहीं गहा ।
 
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03:26, 4 जनवरी 2011 के समय का अवतरण

एक चाय की चुस्की
एक कहकहा
अपना तो इतना सामान ही रहा ।

चुभन और दंशन
पैने यथार्थ के
पग-पग पर घेर रहे
प्रेत स्वार्थ के ।
भीतर ही भीतर
मैं बहुत ही दहा
किंतु कभी भूले से कुछ नहीं कहा ।

एक अदद गंध
एक टेक गीत की
बतरस भीगी संध्या
बातचीत की ।
इन्हीं के भरोसे क्या-क्या नहीं सहा
छू ली है सभी, एक-एक इन्तहा ।

एक क़सम जीने की
ढेर उलझनें
दोनों ग़र नहीं रहे
बात क्या बने ।
देखता रहा सब कुछ सामने ढहा
मगर कभी किसी का चरण नहीं गहा ।