"विनयावली / तुलसीदास / पद 241 से 250 तक / पृष्ठ 4" के अवतरणों में अंतर
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=तुलसीदास }} {{KKCatKavita}} Category:लम्बी रचना {{KKPageNavigation |पीछे=प…) |
छो (पद 241 से 250 तक / तुलसीदास/ पृष्ठ 4 का नाम बदलकर विनयावली / तुलसीदास / पद 241 से 250 तक / पृष्ठ 4 कर दिया गया ...) |
(कोई अंतर नहीं)
|
07:53, 17 जून 2012 के समय का अवतरण
पद संख्या 247 तथा 248
(247)
राम जपु जीह! जनि, प्रीति सों प्रतीत मानि,
रामनाम जपे जैहै जियकी जरनि।
रामनामसों रहनि, रामनामकी कहनि,
कुटिल कलि- मल-सोक-संकट-हरनि।1।
रामनामको प्रभाउ पूजियत गनराउ,
कियो न दुराउ, कही आपनी करनि।
भव-सागरको सेतु, कासीहू सुगति हेतु,
जपत सादर संभु सहित घरनि।2।
बालमीकि-ब्याध हे अगाध -अपराध -निधि,
‘मरा’ ‘मरा’ जपे पूजे मुनि अमरनि।
रोक्यो बिंध्य , सोख्यो सिंधु घटजहुँ नाम-बल,
हार्यो हिय, खारो भयो भूसुर-डरनि।3।
नाम-महिमा अपार, सेष -सुक बार-बार
मति-अनुसार बुध बेदहू बरनि।
नामरति-कामधेनु तुलसीको कामतरू,
रामनाम है बिमोह-तिमिर -तरनि।4।
(248)
पाहि पाहि राम! पाहि रामभद्र रामचंद्र!
सुजस स्त्रवन सुनि आयो हौं सरन।
दीनबंधु! छीनता-दरिद्र-दाह-दोष-दुख,
दारून, दुसह दर-दुरित-हरन।1।
जब जब जग-जाल ब्याकुल करम काल,
सब खल भूप भये भूतल-भरन।
तब तब तनु धरि, भूमि -भार दूरि करि।
थापे मुनि , सुर, साधु, आस्त्रम , बरन।2।
बेद, लोक, सब साखी, काहूकी रति न राखी,
रावनकी बंदि लागे अमर मरन।
ओक दै बिसोक किये लोकपति लोकनाथ ,
रामराज भयो धरम चारिहु चरन।3।
सिला, गुह,गीध, कपि, भील, भालु , रातिचर,
ख्याल ही कृपालु कीन्हें तारन-तरन।
पील-उद्धरन! सीलसिंधु! ढील देखियतु ,
तुलसी पै चाहत गलानि ही गरन।4।